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________________ भाव-संग्रह १८१ अर्थ- जिस प्रकार किसी पर्वत में निकलती हुई नदी का पानी किमो जल म भरे हुए तालाब मे निरंतर पड़ता रहता है उसी प्रकार गम्धी के व्यापार में लगे हुए पुरुष के अशुभ मन बचन काय इन तीनों अशुभ योगों द्वारा निरंतर पाप कार्यों का आस्रव होता है। इसलिच एसे गृहस्थों के लिये आचार्य उपदेश देत है-- जाम ण छंद गेहं ताम ण परिहरइ इंतयं पात्र । पावं अपरितो हेओ पुण्णस्स या चयउ ।। यावन्न त्यजति गृहं तावन्न परिहरति एतत्पापम् । पापम परिहरन हेतुं पुण्यस्य मा त्यजतु ।। ३९३ ।। अर्थ- इस प्रकार यं गृहस्थ लोग जब तक घर का त्याग नहीं करते गृहस्थ धर्म को छोड कर मुनि धर्भ धारण नहीं करते तब तक उनसे ये पाप छट नहीं सकते । इसलिये जो गहस्थ पापों को नहीं छोड़ ना चाहते उनको कम से कम पुण्य के कारणों को तो नहीं छोडना चाहिये । भावार्थ-गृहस्थों को सदा काल पाप कर्मों में ही नहीं लगे रहना चाहिये किंतु साथ में जितना कर सके उतना पुण्य कर्मों का भी उपार्जन करते रहना चाहिये । तथा पुण्य उपार्जन करने के लिये सावलंबन घ्यान वा भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा अथवा सुपात्र दान देते रहना चाहिये । आगे आचाय फिर भी कहते है। सा मुक्क पुण्णहेउं पावस्सासवं अपरिहरतो य । पजाइ ऊवेण णरो सो दुग्गइ जाड मरिउणं ।। मा स्यजपुण्य हेतुं पापस्यात्रवं मपरिहरंबच । वध्यते पापेन नरः सदुर्गति याति मृत्वा ।। ३९४ ।। अर्थ- जो गृहस्थ पाप रुप आस्रवों का त्याग नहीं कर सकते अर्थात् गृहस्थ धर्म छोड नही सकते उनको पुण्य के कारणों का त्याग कभी नहीं करना चाहिये । क्योंकि जी मनुष्य सदाकाल पापों का बंध करता रहता है वह मनुष्य मर कर करकादिक दुर्गति को ही प्राप्त होता है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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