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भाव-संग्रह
यदि भणति कोप्पेवं गृहन्यापारेषु वर्तमानोऽपि । पुण्येनास्माकं न कायं यत्संसारे सुपात्यति ।। ३८९ ।।
अर्थ--कदाचित् कोई गृहम्थ बह कहे किं. यद्यपि हम गृहस्थ व्यापारों में लगे रहते हैं तथापि हमे लावलंब ध्यान कर पुण्य उपाजन करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि पुण्य उपार्जन करने को भी तो इस जीव को मंसार में ही पडना पडगा ।
ऐसा कहने वाले के लिये आवाय उत्तर देते हैं।
मेहुणसण्णारूढो मार गवलक्ख सुहम जीवांई । इय जिणवरेहि भणियं बझंतरणिपाथरूकेहि । मैथुनसंज्ञारूढो मारयति नवलक्षयसूक्ष्म जीवान् ।
एतज्जिनवरैः भणितं वाह्याभ्यन्तरनिन्थरूप: ।। ३९० ।।
अर्थ- आचार्य कहते हैं कि देखो जो पुरुष मंजुन संज्ञा को धारण करता है अपनी स्त्री का गबन करता है वह गुहस्थ नौ लाग्न सूक्ष्म जीवों का घात करता है । ऐसा बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित भगवान् जिनेंद्रदेवने कहा है। इसके सिवाय
गेहे बदतस्स य वावारसयाई सया कुणंतस्स । आसबइ कम्म मसुहं अब रउद्दे पयत्तस्स ॥ गेहे वर्तमानम्य च व्यापारघातानि सदा कुवंतः ।
आत्रवति कर्भाशुभं भातरोगप्रवृत्तस्य ॥ ३९१ ।। अर्थ- जो पुरुष घरमें रहता है और सदाकाल गृहस्थी के मैकड़ों व्यापार करता रहता है वह आतध्यान और रोद्रध्यान में भी अपनी प्रवृत्ति करता रहता हैं इसलिये उसके सदा काल अशुभ कर्मों का ही आम्रव होता रहता है।
अइ गिरिणई तलाए अणवरयं पयिसए सलिल परिपुण्णं । मण वयतणु जोएहि पविस असुहेहि तह पाबं || यथा गिरिनदी तलागेऽनपरतं प्रविशति सलिलपरिपूर्णे । मनवचनतनुयोगः प्रविशति अशुभैः तया पापम् ॥ ३९२ ।।