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________________ भाव-संग्रह तो परिश्रण मात्र ही होता है इसी प्रकार गृहस्थों का निरालंब ध्यान श्री शुद्ध आस्मा का ध्यान परिश्रम मात्र होता है । अथवा शुद्ध आत्मा का ध्यान करने वाला वह गृहस्थ उस ध्यान के बहाने सो जाता है । जब वह सो जाता है तब उसके व्याकुल चित्त में वह ध्यान करने योग्य शुद्ध आत्मा कभी नहीं ठहर सकता इस प्रकार किसी भी गृहस्य के शुद्ध आत्मा का निश्चल ध्यान कभी नहीं हो सकता । झाणाणं संताणं अहूबा जाएइ तस्स क्षाणस्स आलंदण रहियत य ण ठाइ चित्तं थिरं जम्हा || ध्यानाना सन्तानं अथवा जायते तस्य ध्यानस्य । आलम्बन रहितस्य च न तिष्ठति चितं स्थिरं यस्मात् ||३८७|| १७९ अर्थ - अथवा यदि वह सोता नहीं तो उसके ध्यानों की संतानरुप परंपरा चलती रहती है। इसका भी कारण यह है कि निरालंच ध्यान करनेवाले गृहस्थ का चित्त कभी भी स्थिर नहीं रह सकता । भावार्थगृहस्थ का चित्त स्थिर नहीं रहता इसलिये उसके निरालंब ध्यान कभी नहीं हो सकता । यदि वह गृहस्थ निरालंब ध्यान करने का प्रयत्न करता है तो निरालंब ध्यान तो नहीं होता परंतु किसी भी ध्यान की संतान परंपरा चलती रहती है । अब आगे गृहस्थों के करने योग्य ध्यान बतलाते हैं । तम्हा सो सालंबं झायज झाणं पि गिवई णिच्चं । पंच परमेट्ठिरूवं अहवा मंतक्खर तेसि || तस्मात् स सालम्वं ध्यायतु ध्यानमपि गृहपतिनित्यम् । पंच परमेष्ठिरुपमथवा मंत्राक्षरं तेषाम् ।। ३८८ ।। अर्थ - इसलिये गृहस्थों को सदा काल आलंबन सहित ध्यान धारण करना चाहिये । या तो उसे पंच परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये अथवा पंच परमेष्ठी के वाचक मंत्रों का ध्यान करना चाहिये । जय मणइ को वि एवं मित्राबारेसु बट्टमाणो वि । पुणे अम्हण कज्जं जं संसारे सुवाई |
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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