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भाव-संग्रह
अनं- दृष्टिबाद नाम के बारहवे अंग मे गुणस्थान को लेकर ही ध्यान का स्वरूप बतलाया है जिससे सिद्ध होता है कि देशबिरती गृहस्थ मुख्य धार्यध्याग का ध्यान नहीं कर सकता।
आगे इसका कारण बतलाते है।
कि जं सो गिहवंतो बहिरतरगंथपरमिओ पिच्चं । बहु आरंभपउत्तो कह शायइ सुद्धपप्पाणं ।। किं यत् स गहवान् वाह्याभ्यन्तरग्रन्थपरिमितो नित्यम् । वहुवारम्भप्रयुक्तः कथं ध्यायति शुद्धमात्मानम् ।। ३८४ ।।
अर्थ- गृहस्थों के मुख्य धर्म्यध्यान न होने का कारण यह है कि गृहस्थों के सदाकाल दाह्य आभ्यंतर परिणः परिमित रूप मे रहते हैं तथा आरंभ भी अनेक प्रकार के बहुत से होते है इसलिय वह शुद्ध आत्मा का ध्यान कभी नहीं कर सकता :
घर बाबारा केई करणोया अस्थि ते ण ते सव्ये । झागछियस्स पुरओ चिठ्ठति णिमीलियच्छिस्स | गृह व्यापाराणि कियन्ति करणीयानि सन्ति तेन तानि सर्वाणि | ध्यान स्थितस्य पुरतः तिष्ठन्ति निमोलिताणः ।। ३८५ ।।
अर्थ- गृहस्थों को घर के कितने ही व्यापार करने पडले हैं। जब व, गहस्थ अपने नेत्रों को बंद कर ध्यान करने बैठता है तब उसके सामने घर के करने योग्य सब व्यापार आ जाते हैं।
अह ढिकुंलियां नाणं झायइ अहया स सोथए झाणी । सोचतो मारवं ण ठाइ चित्तम्मि वियलम्मि ॥ अथ विकुलिक ध्यानं ध्यायप्ति अथवा स स्वपिति ध्यानो । स्वपसः ध्यातम्मन तिष्ठति चिसे विकले ।। ३८६ ।।
अर्थ - जो कई गहस्थ शुद्ध आत्मा का ध्यान नरना चाहता है तो जसका वह ध्यान ढेकी के समान होता है | जिस प्रकार ढेकी धान कुटने मे लगी रहती है परंतु उससे उसका कोई लाभ नहीं होता उसको