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________________ भाव-संग्रह १०७ लोक बनाया है तो वह तीनो लोक अधिक कालनक नहीं ठहर सकता। क्योंकि जो पदार्थ विक्रिया से बने होते हे गे सारा होतो है और अनित्य होत है इसलिये वे अधिक काल तक कभी नहीं ठहर सकते। तम्हा ण होइ कतवं भो सिरछेय विनइणं पत्तो। छलिओ तिलोत्तमाए सामण्पुरि सुन्न असमत्थो ।। २२१ ।। तस्मान्न भवति कर्ता ब्रह्मा शिरच्छेदविनटनं प्राप्तः । छलितस्तिलोत्तमया सामान्य पुरुष इवा समर्थः २२१ ।। अर्थ- इसलिये कहना चाहिये कि इस लोक का कर्ता ब्रह्मा कभी नहीं हो सकता । भला विचार करने की बात है कि जिसका मस्तक छेदा गया जिसको तिलोमत्ता न ठग लिया ऐसा वह ब्रह्मा सामान्य पुरुष के समान तीनों लोकों के बनाने में असमर्थ है। जिस प्रकार सामान्य पुरुष बिना सामग्री आदि के कोई कार्य नहीं कर सकता। जो पर महिला कज्जे छंडइ बहुत्तणं तओ णियमं सण हवइ परमप्पा कह देवो हबइ पुज्जो य ॥ २२२ ।। यः पर महिला कार्येण यजति बृहत्त्वं तपो नियमम् । स न भवति परमात्मा कथं देवो भवति पूज्यश्च ।। २२२ ।। अर्थ- विचार करने की बात है कि जिस ने एक पर स्त्री के लिय अपना बडप्पन छोड दिया, अपना तपश्चरण छोड दिया, और अपने सव नियम छोड दिये वह परमात्मा कैसे हो सकता है अर्थात् कभी नहीं हो सकता तथा जब वह परमात्मा ही नहीं हो सकता है तब वह पूज्य देव भी किस प्रकार हो सकता है, अर्थात् कभी नहीं हो सकता । सुपरिस्त्रिऊण तम्हा सुगबेसह को वि परम भाणो । वह अदुवोस रहिओ बीयराओ परणाणि ।। २२३ ।। सुपरीक्ष्य तस्मात् सुगवेषय कमपि परम ब्रह्माणम् । वशाष्टदोष रहितं वीतराग परं जानिन् ।। २२३ ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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