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________________ भाव-सह समय हो गये थे और इगलिये जो तपश्चरण मे भ्राट हो गये थे तथा जा परिषह सहन करने म दुःख का अनुभव करते थे, दुखी होते थे ऐमे उन लोगाने गृहस्थ कल्पको ही विरकल्प मान लिया है । जिग्गंयो जिणवसहो णिगंथं पवयण कयं तेण । तस्साणुमागलग्गा सत्वे णिग्गंथमहरिसिणो ।। १३४ ।: निर्गन्यो जिनवृषभो निग्रंथं प्रवचनं कृतं तेन । तस्यानुमागंलग्नाः सर्वे नियमन । १३४।। अर्थ- भगवान ऋषभ देव दीक्षा धारण कर निर्गथ मुनि हुए थे तथा कवल केवल ज्ञान प्राप्त करने के अनन्तर उन्हाने मुनियों का स्वरुप निग्रन्थ ही बतलाया था। अपनी दिव्यध्वनी में मुनियों को निर्ग्रन्थ अवस्था ही बतलाई थी जो शास्त्रों मे आज तक विद्यमान है। उन्ही शास्त्रों के अनुसार वर्तमानके निर्ग्रन्थ मुनि भी उसी मार्ग के अनुसार निर्गन्ध होते चले आ रहे है ।। जे पुण भूसिय गंथासियणि गंलिंगवयभट्टा । तेहि सगंथं लिंगं पायडियं तित्थणाहस्स ॥ १३५ ।। ये पुनभूषितग्रन्था दूषितनिर्ग्रन्थलिंग-वतभ्रष्टाः । तेः सनग्य लिग प्रकटित तीर्थनाथस्य ॥ १३५ ॥ अर्थ- जो लोग मुनि होकर भी परिगृहसे सुशोभित रहते है। जिन्होंने पवित्र निर्गन्थ लिंगको दुषित कर रक्खा है तथा जो निग्रंथ लिंगसे और अपने मुनिन्नत मे भ्रष्ट हो गये है ऐसे लोगों ने तीथंकर पर देव के इस निर्गथ लिंग को भी सग्रन्थ लिंग प्रगट कर रक्खा है । भावार्थ- तीर्थकर परमदेव मार्ग तो निग्रंथ ही है । परन्तु जो लोग अपने व्रतोंसे भ्रष्ट हो गये है कोई प्रकार का कष्ट सहन न करते हुए सब प्रकार से सुखी रहकर ही स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करना चाहते है ऐसे लोग तीर्थकर के निर्ग्रन्थ मार्ग को सग्रन्थ बतलाते है । जं अं सपमादरियं तं तं णिरूयायमेण अलिएण। लोए वखणिता अण्णाणी धन्विआ तेहिं ।। १३६ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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