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________________ भात्र-मगह यत् यत् स्वयमाचरितम तत्तत् निरागमैनालीकेन । लोके व्याख्याय अज्ञानिनो वन्चितास्तैः ॥ १३६ ।। अर्थ- ऐसे लोग जिन २ आचरणों को स्वयं पालन करते हैं उन्हीं आवरणों को अपने बताये हुए मिथ्या आगमों से निरूपण करते है तथा संसार में वे लोग उसी प्रकार व्याख्यान कर अज्ञानी लोगों को ठगते है । यह एक दुःख की बात है। आग श्वेतपट मत कब, कहां और किरा प्रकार उत्पन्न हुआ. यहीं बात दिखलाते है। छत्तोले बरिससये विस्कमरायस्स मरणपत्लस्स | सोरट्टे उप्पण्गो सेवइसन्चो हु वलहोर :: १३७ ।। षत्रिशतिवर्षशते विक्रमराजस्य मरणप्राप्तस्य । सौराष्ट्र उत्पन्नः श्वेतपटसंघो हि वल्लभीके ।। १३७ ।। अर्थ- राजा विक्रम के मरने के एकसौ छत्तीस वर्ष बाद सोरठदेश के बलभी नगर में श्वेतपट संव की उत्पत्ति हुई थी। उसकी कथा इस प्रकार है। असि उज्जेणिणवरे आइरिओ पहवाहुणामेण । जाणिय सुणिमित्तधरो भणिओ संघोणिओ लेण ।। १३८ ।। आसिदुज्जयिनीनगरे आचार्य: भन बाहुः नाम्ना । ज्ञात्वा सुनिमित्तरधरः भणितः संघो निजस्तेम ।। १३८ ।। अर्थ- उज्जयिनी नगरी में भद्रबाहु नामके आचार्य थे । वे निमित्तशास्त्रको जानते थे । उन्होने अपने निमित्त शास्त्रसे जानकर अपने संघ से कहा था कि-. हो हइ इह दुभिक्खं बारह वरणाणि जाम पुग्णाणि । देसतराइ गच्छद णिणिय संघण संजता ॥ १३२, ।। भविष्यतीह बुभिक्ष द्वादशवर्षाणि यावत्पूर्णानि । देशान्तराणि गच्छत निजनिजसंघेन संयुक्ताः ।। १३९ ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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