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________________ भाव-संग्रह अर्ग-- इस देशमे बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष पडेगा । इसलिये आप लोग अपने दोन संवके साथ दूसरे देशों में चले जाओ। सोऊण इयं धयणम् णाणावेसेहिं गणहरा सम्वे । णिय णिय संघ पउत्ता विहीआ जस्थ सुविभक्खं ।। १४० ।। श्रस्वेदं वचनं नानावशे गणधराः निजनिजसंघप्रयुक्ता विहृता यत्र सुभिक्षम् ।। १४० ।। अर्थ- आचार्य श्री भद्रबाहु से इन वचनों को सुन कर समस्त गगाधर व आचार्य अपने २ संघको लेकर जहां २ सुभिक्ष था सुकाल था उन २ देशों के लिये विदार कर गये । एक्कं पु सन्ति गामो संपतो बलहि णाम णएरीए । बहुसीससंपउत्तो विसए सोरदुए रम्मे ।। १४१ ॥ एकः पुनः शान्ति नामा संप्राप्तः वल्लभोनामनगर्याम् । बहुशिष्यसंप्रयुक्त: विषये सौराष्ट्र रम्ये ।। १४१ ।। अर्थ- उन आचार्यों में एक शांति चन्द्र नाम के आचार्य थे, वे आचार्य अपने अनेक शिष्यों के साथ मनोहर सोरठ देश के वल्भी नाम के नगर मे विहार करते हुए पहुंचे। तत्थ वि मयस्स जायं दुभिक्खं वारुणं महाघोरं । जस्थ वियारिय उयरं खदो रंकेहि कूरति ॥ १४२ ।। तत्रापि गतस्य जातं दुभिक्षं दारुणं महाघोरम् ।। यत्र विदार्योदरं भक्षितः रंकः क्रूर इति ॥ १४१ ।। अर्थ- जब वे आचार्य शांति चन्द्र अपने संघ सहित वल्मी नगर मे पहुंचे तब वहां भी महा भयानक महा दुःखदायी दुभिक्ष पडा तथा ऐसा दुर्भिक्ष पड़ा कि क्रूर निधन भिक्षुक आदि दूसरों के पेट को विदीर्ण कर उसमे का खाया हुआ अन्न खा जाते थे। तं लहिऊण णिमितं गृहीयं सम्वेहि कंबली वर । बुद्धियपन्तं च तहा पावरणं सेयवत्थं च ॥ १४३ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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