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भाव-संग्रह
एतानुक्तान् बेवान् सर्वान श्रद्दधाति यः पुराणैः । अहंतः परित्यज सम्यग्मिथ्यात्वं इति ज्ञातव्यम् ।। २५७ ।।
अर्थ- जो पुरुष बीतराग सर्वज भगवान अरहंत देवको छोड़कर ऊपर लिख इन समस्त देवों का श्रद्धान करना है तथा पुराणों में कहे हार अन्य समस्त देवो का श्रद्धान करता है उसे सम्यग्मिथ्या दाटी तीसरे गुण स्थान वाला समझना चाहिये ।
एसो सम्मामिच्छो परिहरियखो हवेइ णियमेणः । एत्तो अधिरइ सम्मो कहिज्जमाणो णिसामेह ।। २५८ ।। एतत्सम्यग्मिथ्यात्वं परिहर्तमं भवति नियमेन । इतः अविरतसम्यक्त्वं कथयिष्यमाणं निश्रृणुत ।। २५८ ।।
अर्थ- इस प्रकार जो तीसरे सम्यम्मिश्यादृष्टी गुणस्थान का स्वरूप कहा है उसका सर्वथा त्याग नियम पूर्वक कर देना चाहिये । अव इसके आगे चौथे अविरत सम्यग्दृष्टी नाम के गुणस्थान का स्वरुप कहते है, उसे सुनी।
इस प्रकार तीसरे गुणस्थान का स्वरुप कहा ।
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ब्रह्मा अल्पायुषोऽयं हरिविधि प्रशाद्वोपतिर्गर्भवास, चन्द्रा, क्षीणः प्रतापी भ्रमति दिनकरो देवमिथ्याभिमानी । कामः कायेनहीनश्चलयति पवनो विश्वकर्मा दरिद्री, इन्द्राद्या दुःख पूर्णाः सुखनिधि सुभगः पातुनः पार्श्वनाथः ॥
अर्थ- ब्रह्मा का आयुष्य थोड़ा है, कर्मों के उदय स कृष्णा ग्बाल के यहां हुए, चन्द्रमा का प्रताप क्षीण, जो देव पने का मिथ्या अभिमान करता हुआ सदा परिभ्रमण किया करता है। कामदेव शरीर रहित है वायु की गति सदा चंचल रहती है, विश्वकर्मा दरिद्री कहलाता है और इन्द्रादिक देव सब दुःखो से भरे हुए है । अतएवं अनंत सुख से सुशोभित होनेवाले भगवान पार्श्वनाथ हम लोगों की सदा रक्षा करें।