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________________ (८४ } दुस्त्रीचितने दुर्मुखं कलहम गर्व मनंगोंडज । शास्त्रं शास्त्र मे शास्त्रिकनला रत्नाकरा धीस्वरा ।। रत्नाकर शतक शास्त्रका ज्ञान प्राप्तकर शांति और सहिष्णुता को धारण करना,! अहंकारसे रहित होगा, धार्मिक मा, मृदु बाते करना मोक्ष चिंता तथा स्वात्म चिता मे विरत रहना श्रेष्ठ कार्तव्य है । इसके विपरीत शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त कर स्त्रियों की चिता, क्रोध, मान, माया आदिसे विकसित स्पर्धा और अहंकार के उपयोग से शास्त्र शस्त्र बन जाता। है । और शास्त्रज्ञ भी शशधारी हो जाता है । अभिप्राय यह है की। शास्त्र ज्ञान का उपयोग आत्महित के लिये करना चाहिये ।। जिस स्वाध्याय के माध्यमसे आत्मतनका परिज्ञान होता है।। हिताहित ज्ञान प्रगट होता है, कषाय इंद्रियोंका दमन होता है, संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न होता है, मोक्ष मागं मे प्रवृत्ति होती है, वात्सल्य, प्रेम, विनय, मरलता देव, गुरु, शास्त्र प्रति बहुमान, शांति । प्रगट होती है । उसको स्वाध्याय कहते है अन्यथा उसका स्वाध्याय केवल द्रव्य स्वाध्याय है जो मोटा मार्ग के लिए अकित्कर है संयम : जिस प्रकार एक कार के लिए गनि चाहिए, प्रकाश चाहिए । उसी प्रकार गति रोधक शक्ती-ब्रक भी चाहिए । बक नियंत्रण के । विना कार बेकार है । उसी प्रकार मानवी जीवनमे उन्नती रुप गति । चाहिए, साथ साथ भी इंद्रिय और मनको नियंत्रण करने रुप ब्रेक भी चाहिए नहीं तो वह मानव भी बेकार है । उस नियंत्रण शक्ती को हो । संयम कहते है । " सम्यक् पयो वा सयम: सम्यक रुप से पम अर्थात । नियंत्रण सो संयम है । उस संय मरुपी अत्र ( सम .. यम ) के माध्यमसे संसार रूपी यम को नपर कर सकते है । अन्यथा नही। . पूर्ण मंयमी यमी. महामुनी हो सकते है। किंतु श्रावकको भी। आंशिक रुप संयम पालन करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। इस लिये श्रावक को देश संयमी कहते है । संयम १२ प्रकारके
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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