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________________ । ५ इन्द्रिय का निरोध एक मननिरोध और षड्काय जीओं का रक्षण को सयम कहते है । इच्छा आकाश के समान अनत है। जिस इच्छा रुपी आकाश में संपूर्ण विश्व एक सरसो के समान है । जब एकही जीव की इच्छा रुपी खड्डा में यह संपूर्ण विश्व सरसों के दाने के समान है । तो अनंत जीवों के लिए उस सरसों समान विश्व का भाग करने से एक जीव के भाग में कितना प्राप्त होगा । अथवा जिस प्रसार अग्नि के ऊपर व्रत डालने से २.अग्नि बढती जाती है । अग्नि संतुष्ट नहीं होती उसी प्रकार इच्छा रुपी व आशा रुपी अग्नि में पारह रुपी वृत डालने से आशा रूपी अग्नि शांत नहीं होती किंतू बढ़ती ही जाती है । इसीलिये ज्ञानी श्रावक उस इच्छारुपी अग्नि को शांत करने के लिये तपरुपी में पानी डालते है । उसको महान शांती मिलती है । इसलिये " इच्छानिरोध तप: '' महषियों ने बताया है । वह भी यथायोग्य अतरंग बहिरंग १२ प्रकारका । तप धारण करता है। : दान: चारित्र्य मोहनीय कर्म क उदय मे लोभ कषाय के वशवर्ती होकर श्रावक संपूर्ण बाह्य परिग्रह को त्याग नहीं कर पाता है वह गह में रह कर असि मषि कृणि व्यापारादि आरंभ करके परिग्रह सचय करता है। भोग उपभोग भी करता है । उसे जो पाप संचय होता है उसे पार का नष्ट करने के लिये, कषायों की क्षीण करने के लिय, देव, गुरु, शास्त्र के सेवा सरक्षण के लिये आत्म विशुद्धि के लिये सातिशय पृण्य संपादन -- आस्वं - पानी के प्रवेश में नाव से डूबे अथाह सागरे । कम के सयोगे जं व बावरा हो अपार ससारे ।। - संबर - पानी के निरोध यथा नाव में प्रवेश नहीं करे पानी । आस्रव द्वारों को निरोध जब जीव संवर' भाव हैं मणि ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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