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________________ स्वाध्याय : स्वाध्याय केवल शब्द आगम अर्थात द्रव्य श्रुतका पढ़ना रटना स्वाध्याय नहीं है। परंतु द्रव्य श्रुत के माध्यमसे भाव श्रुतद्वारा स्व भारम द्रव्यका अध्ययन करना, जानना, शोध करना, प्राप्त करना यथार्थ स्वाध्याय है प्रज्ञातिशम अस्तायाः मरणयास्सगोपतिरतिधार विशुद्धि रित्येवमाद्यर्थः । प्रज्ञा मे अतिशय लाने के लिये अध्यावसाय को प्रशस्त करने के लिए परम सवेग के लिये, तपद्धिच अतिचार शुद्धि के लिये (संशयोच्छेद व परवादियो की शंकाका अभाव राजवार्तिक ) आदिके लिए स्वाध्याय तप आवश्यक है । दव्य सुयादो भावं भावदो होइ सव्व सण्णाणं । संवेयण वित्ति केवल णाणं तदो भणियो ॥१।। नय चक गाहिओ सोसुदणाणे पच्छा संवेयणेण क्रायब्यो । जोणहु सुदमवलंबइ सो मुज्झइ अप्प सम्भावे ॥३४ नयचक्र द्रव्य श्रुतसे भानश्रुत होता है । भावश्रुत से भेद विज्ञान होता है 1 उससे संवेदन. आत्मसंवित्ति और केवल ज्ञान होता है ।।१।। पहले श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माको ग्रहण करके संवेदन के द्वारा उसका ध्यान करना चाहिये । जो थुत ज्ञानका अवलबन नही लेता है वह आत्मस्वभावमे भूद रहता है। जिणवयण मोसहमिणं विसय सुह विरेयणं अमिद भूयं । जर मरण बाहि हरण रवय करण सव्व दृक्क्षण ॥ दसग पाहुड यह जिन वचन रूप औषधि इंद्रिय विषय से उत्पन्न सुखको दूर करनेवाला है । तथा जन्म मरण छप रोग को दूर करने के लिए अमृत सादृश है और सर्व दुःखों के भय का कारण है। शास्त्रं बदोड़े शांति सैरने निगर्वं नीति मेवात मुक्ती स्त्रीचिते निजात्म चितने मिल वेलक तल्लदा शास्त्रदि ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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