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________________ यह समाधिकी प्राप्ति विचित्साका अभाव और प्रवचन वात्सल्य की अभिव्यक्ती के लिए किया जाता है। वयावृत्तीसे तिर्थकर नामकर्म का बंध : साहुणं वेज्जावच्च जोग जुत्तदाए.व्यावृते पत्कियते तद्वे याव । त्यम् । जेण सम्मत्त-णा-अरहंत-बहुसुद भत्ति पवयण' वच्छ ग्लादिणा | जोबो जुज्जइ वेज्जायच्चे सो वेज्जावच्च जोगो दसणवि मुज्झदादि तेण जुत्तदा वेज्जावच्च जोग जुत्सदा । ताए विहाए एक्काए वि तिस्थयराणा कम्म बंधइ । एत्थ सेसकार गाणं जहा स भवेण अंत भावो क्तव्यो। एवमेंद दसय कारणं । साधुओं के वैयावृन्य योग युक्तता से तिर्थकर नामकर्म बंधता है। वैयावृत अर्थात रोगादि व्याकुल साधु के विषय में जो सेवा औषधादि देना, उपसर्ग, परिषद दूर किया जाता है उसका नाम वैयावृत्य है। जिम सम्यक्त्व-ज्ञान-अरिहंत भक्ति बहुश्रुत भवती एवं प्रवचन | वात्सल्यादि से जीव वेयावृत्त्य मे लगाता हो वह वैयावृत्त्य योग है अर्थात दर्शन विशुद्धतादि गुण है उनमे संयुक्त होते का नाम वैयावृत्त्य योग मुक्तता है इस प्रकारकी उस एकही प्रकारको वैयावृत्य मक्ततासे तिर्थकर नाम कर्म बधलं है । यहाँ शेष कारणोका यथा संभव अंतर्भाव करना चाहिए । इस प्रकार यह दसवा कारण है। कुंदकुंद स्वामी प्रवचन सार मे बताये है की, मुनि यो की अपेक्षा श्रावकों का मुख्य कर्तव्य है। जो अंतरंगमे अहंकारी, अविनयी हैं और जिनकी धमके प्रति, . गुरु के प्रति प्रीती नही है वह साधू सेवा नहीं कर सकता है । वैयावृत्त्यसे अभिमान, अविनयता दूर होता है । ऋजुता, नम्रता कोमलता आदी गुण प्रगट होते है । वैयावृत्त्य अंतरग तप है । एक सतत ज्ञानोपयोगी साधुसे भी वैयावृत्त्य करनेवाला साधू श्रेष्ठ है। क्यों की वह स्व पर उपकार करता है। परंतु स्वाध्यायवाला केवल स्व उपकार करता है बाध्याय करने वाले पर विपत्ती आयेंगी तो उसे बयावृत्य वाले के मुख तरफ ही देखना पडेगा ऐसा भगवती आराधना ये ३२९ गाथामे कहा है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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