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________________ (८१) वैयावृत्त्य न करने में दोष एदे गुणा महल्ला वेज्जावच्चुज्जदस्स बहयाय । अप्पढ्दिो हु जायदि सज्झयं चेव कुवंतो ॥३२९।। आणिहिद बलविरओ वेज्जावच्चं जिणो व देसेण । जदि ण क रेदि समत्थो संतो सो होदी णिद्धम्मो ॥३०६॥ तित्थयराणा कोधो सुदधम्म विराधणा अणायारो। अम्पापरो पवयणं च ते ण णिज हिदं होदि ।।३०८। भगवती आराधना समर्थ होते हुए तथा अपने बल को न दिलाते हुए भी जिनोप-- दिष्ट वैयावृत्त्य जो नहीं करता है यह धर्म नष्ट है। जिनाज्ञा का भंग, शास्त्र कथित धर्म का नाश, अपना साघु वर्गका व आगमका त्याग ऐसे महादोष वैयावृत्य न करने से उत्पन्न होते है ॥३०६।। वैयावृत्त्यका प्रयोजन व फल : गण परिणामो सइटा बच्दल्लं भक्ति पत्त लंभोय । संधाण नवप्या अब्बोच्छित्ती समाधी य ।।३०९।। आणा मजम मखिल्लाक्ष य दाणं व अविदिगिदाय । वेज्जा बसचस्स गुणा पभानण्णा कज्ज पुष्णाणि ।।३१०।1 भगवती आराधना गुण ग्रहण के परिणाम श्रद्धा. भक्ति बात्सल्य, पात्र की प्राप्ति विच्छिन्न सम्यक्त्व आदि का पुनः संघाम'. नाप, पूज! तीर्थ, अ व्युनिछत्ति, समाधी ।।३०९।। जिनाज्ञा, संय्यम, महार्य, दान निविचिकित्सा प्रभावना, कार्य निर्वाहण ये बेंयावृत्त्यकें १८ गुण है। समाध्याधान विचिकित्सा भाब प्रवचन बात्सल्याद्याभि ब्यक्त्यर्थम् ।। राजवातिक ।। सर्वार्थ सिद्धी ४४२
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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