________________
अब सुतो छंउड सव्वावास सुत्तबद्धाई । तो शेण होइ चत्तो सुआयमो जिनवरिदस्स || ६०७ ।।
यम नियमों का फल :
जो ६ ठा गुणस्थान मे प्रवर्तन करते हुए देव वंदना, स्तुति, स्वाध्याय प्रतिक्रमणादि का त्याग करता है वह परमागम के रहस्य को नहीं जानता है । अथवा जानला हुआ भी सूत्र निवद्ध आवश्यकों का त्याग करता है वह जिन भगवान द्वारा प्रतिपादित आगम को ही त्याग किया । और जिनागम के त्याग के कारण सम्यक्त्व को ही त्याग कर दिया इसलिये वह मिथ्यादृष्टी है । इसलिये जब तक मन निश्चल रुपले निश्चल ध्यान नहीं होता है तब तक षट् आवश्यक क्रिया को व्रतसहित पालन करना चाहिये ।
वाणादिरयण वियमिह सजा तं साधयंति जमणियमा
जस्थ जमा सस्यदिया नियमा णियतथ्य परिणामः ॥ २ ॥ ( मूलाचार कुंद कुंदा )
स्वाधीन सुखं परमेव सुरणं
भोग समं रोग न अन्य क्वचित् । रत्नत्रय धारी समं न श्रीमान्
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप साध्य है । यम और मियम इस रत्नत्रय रूप साध्य को सिद्ध करनेवाले है । साधन के बिना साध्य सिद्धि नहीं होती है। इसलिये महाव्रतादि यम सामायिकादि नियम के बिना रत्नत्रय की सिद्धि नहीं हो सकती है। इसलिये मोक्ष के लिये
( भाव-संग्रह )
मारवाहि पशु रेव धनवान् ।। ११ ।।
मर पशुः
धर्मः विधेषः नीति ज्ञानं हीन बात्सल्य बन्धुत्व समता हीन ।
मनुष्य समानं न पशुरस्ति
१०३
—
-
परोपकारी पशुरेव श्रेष्ठः ।। १२ ।।