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________________ आत्म अविरुढ चारित्र पालन नहीं करेंगे तब तक सर्व कार्य से निवृत्त | होकर आत्मोथलब्धि रूप मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते है। मुनियों का कर्तव्यः मायह धम्मज्माणं अठं पि य गोकसाय उदयाओ । सज्झाय भावणाए उवसामइ पुंणु चि झाणम्मि ॥ ६०३ ॥ ( भाव-संग्रह ) मन धर्मध्यान को धाता है कभी कभी तो कषाय के उदय से आर्त ध्यान भी हो जाता है । उस आर्सध्यान' को उपशमन के लिये स्वाध्याय, अनुप्रेक्षाओं का चितवन करते है । प्रमादवशतः मूल गुण उत्तर गुण में अतिचार आदि लगने पर निंदा, गर्दा प्रतिक्रमणादि करता है । जब मन धर्मध्यान मे स्थिर नहीं रहता है, तव स्वाध्याय स्तुति वंदनादि करता है। शंका-- मुनि गृहादि क्रिया को छोडकर मूलगुण रुप क्रिया को करता है । क्रिया की अपेक्षा दोनों समान होने से बंध भी समान है। अशुभ को छोडकर अहिंसावत देववंदनादि शुभ क्रियाओं से पुण्य बंध होता है क्योंकि शुद्ध की अपेक्षा शुभ अशुभ है बन्ध की अपेक्षा पुण्यपाप समान है । मुनि धर्म ही बन्ध स्वरूप है । और बन्धस्वरुप होने के कारण संसार का कारण है। समाधान: सेतु सुद्धो भावो तस्सुबलभो य होइ गुणणे । पणवह प्रमाद रहिये सयलपि चारित्त जुत्तस्स || ६ || (भाव-संग्रह ) शुद्ध भाव आत्म का स्वरुप होने से अत्यन्त उपादेय एवं ग्रहण करने योग्य है । इस शुद्ध भाव की प्राप्ति १५ प्रमाद से रहित सकलचारित्र से शोभित महामुनियों को अप्रमत्तगुणस्थान आदि मे होती है। छठमए गुणटाणे पट्टतो परिहरेइ छावास । नो साहु सो ण मुणई परमायमसार संवोह ॥ ६०६ ॥ ( भाव-संग्रह )
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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