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________________ १९८ भाव-सह और पाप नष्ट हो जाने पर वह आत्मा शुद्ध और शरीर रहित चितवन में आगया । तथा शरीर हित शुद्ध आत्मा कुछ कर नहीं सकता । इसलिये बह फिर अपने शरीर को एक पुण्य के सागर के समान चितवन करता है। उहाधिऊण देह संपुण्णं कोडि चंब संक्रातं । पच्छा सयली करण कुणओ परमेट्ठिमंतेण ।। उत्थाप्य देहं सम्पूर्ण कोटि चन्द्र संकाशम् । पश्चाच्छकलीकरणं करोतु परमेष्ठिमत्रेण ।। ४३४ । अर्थ- तदनंतर करोड़ों चन्द्रमाओं के समान निर्मल और बेदीप्यमान अपने शरीर को चितवन करता हुआ तथा शरीर को पूर्ण रूप से चितवन करता हुआ उस ध्यान से उठ बैठना चाहियं और फिर पंच परमेष्टी वाचक मंत्रों से उस पुरुष को सकली करण करना चाहिये । सकली करण की विधि पहले लिख चुके है ।। अहवा खिप्पउ साहा णिस्सेज करंगुलीहिं थामेहि । पाए णाही हियए मुहे ये सोसे य ठविकणं । अथवा क्षिपतु शेषां निवेशयतु करांगुलैः वामः । पादे नाभ्यां हृवये मुखं च शिरसि च स्थापयित्वा ।। ४३५ ।। अर्थ- अथवा दशों दिशाओं में सरसों स्थापन करना चाहिम तथा बाय हाथ की अंगुलियों से करन्यास करना चाहिये अर्थात् पैरों में नाभि में हृदय में मुख में और मस्तक पर बांये हाथ की उंगलियों को रख कर पाची स्थानों मे पंच परमेष्ठी की स्थापना करना चाहिये । यदि साहा के स्थान में सेहा पाठ है तो सरसों के स्थान में शेषाक्षत लेना चाहिये । यह सब विधि तथा आगे लिखा अंग न्यास सव पोछ सकली करण में लिखा है। अंगे णास किच्चा इंवो हं कप्पिऊण पियकाए । कंकण सेहर मुद्दो कुणओ अण्णोपयीयं च ।। अंगे न्यानं कृत्वा इन्द्रोऽहं कल्पयित्वा निजकाये । कंकणं शेखरं. मुद्रिका कुर्यात् यज्ञोपवीतं च ।। ४३६ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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