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हिसा पापादि अवतों को छोड़कर अहिसादि अत मे अत्यन्त निष्ठा बान होना चाहिये । उस व्रत के माध्यम से जो पमात्मा पद की प्राप्ति हो जायेगी तब उन व्रतों को भी त्यागना चाहिये । जिस प्रकार मंजिल के ऊपर चढ़ने के लिये सीडी की आवश्यकता होती है बिना सीढी के बढा नहीं जा सकता है परन्तु मंजिल के ऊपर जाने के बाद सीढी स्वय - मैंव छूट जाती है अथवा सीडी की शेष सीमा के वाद उस सीढी को त्याग कर मंजिल में प्रवेश करते है जैसे हम आगे बढ जाते है पीछे का रास्ता छूट जाता है उसी प्रकार हम गुणश्रेणी आरुद्ध होकर बढ़ जाते है तो पीछे की गणनगी जूट जाती है। जमे मुनि होनेपर श्रावक के व्रत छूट जाते है, उसी प्रकार परमात्म पद को प्राप्त करते है तो व्रतादि के । विकल्प नहीं रहते है जैसे दूध से दही, घी बनता है जब तक भी नहीं । बनता है तब सक दूध दही का सरक्षण कारण आवश्यक है परंतु घी बनने के बाद दूधादि अवस्था नहीं रहती है। जैसे फूल से फल बनता है फल होनेपर स्वयं फूल खिर जाता है ।
अशुभाच्छुभायातः शुद्धः स्यादयभागमात् । खर प्राप्त संध्यस्य तमसो न सुमद्गमः ॥ १२२ ॥ विद्यूत तमसो रागस्तपः श्रुत निबन्धन् । संध्याराग इवाकस्य अन्तोरभ्युदयाय सः ।। १२३ ॥ बिहाय व्याप्तमालोकं पुरस्कृत्य पुनस्तमः । रविवागमागच्छन् पातालतलमच्छति ॥ १२४ ।।
( आत्मानुशासन)
ईर्षक समानं नहि इन्दुरः
सन्त सुगुणः कर्तने चतुरः । मुषिक: लनन्ति निकट वस्तु
इर्षक: लुनन्ति वूरे स्थितेऽपि ।। १५ ॥ दुर्जन शिष्य सम नहि अग्नि
वहति शिक्षाः अशिक्षारपि । पन्धन हीन दूरस्थ अग्नि
न वहति ( कु) शिष्या उभयरेपि ॥ १६॥