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________________ १०६ होती है तथा वचनों के द्वारा धर्मोपदेश करते है । शेष औषधि अन्नपान आदि की सेवा गृहस्थों के अधीन है, इसलिये वैयावृत्त्य गृहस्थों का मुख्य धर्म है किन्तु साधुओं का गौण है । दूसरा कारण यह है कि विकाएं रहित चैतन्य के चमत्कार की भावना के विरोधी तथा इन्द्रिय' विषक और कषायों के निमित्त से पैदा होनेवाले आत्त आर रद्रध्यान मे परि णमनेवाले गृहस्थों को आत्माधीन निश्चय धर्म के पालने का अवकाश नहीं है । यदि वे गृहस्थ बयावत्यादि रुप शुभोपयोग धर्म से वर्तन करें तो खोटे ध्यान से बचते है तथा साधुओं की संगति से गृहस्थी निश्चय तथा व्यवहार मोक्ष मार्ग के उपदेश का लाभ हो जाता है, इससे ही गृहस्थ परपरा निर्वाण को प्राप्त करते है। धम्मो दयाविसुद्धों पम्चज्जा सश्वसंग परिचित्ता । देवो वषगधमोहो उदय करो भन्यजीवाण ।। २५ ॥ ( अट्ठ पाहुडं ) कुन्द कुन्द दया से विशुद्ध जो धर्म सर्वसग में रहित प्रवज्या अर्थात मनि दीक्षा, मोह से रहित देव भव्य जीवों के लिये उदय कर रहा है। वर वय सहि सग्गो मा दुक्खं होऊ गिरइ इयरेहि । छायातविठ्ठायाणं पडिवालताण गुरू भेव ।। २५ ।। ( अट्ठ पाहुडं कुन्द कुन्द ) जब तक रत्नत्रय की पूर्णता नहीं होती है तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है । जब तक मोक्ष की मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। तब तक व्रत तपों का पालन करके स्वर्ग प्राप्त करना श्रेष्ठ है । परन्तु अवती होकर नरक तिर्यंचगति संबंधी दुःख प्राप्त करना श्रेष्ठ नहीं है। जिस प्रकार एक पथिक को पीछे आनेवाले अपने साथी की राह देखने के अत्यन्त उष्ण धूप में बैठने की अपेक्षा शीतल वृक्ष की छाया में बैठना श्रेयस्कर है ऐसा कौन मूर्ख होगा जो शीतल छाया को छोड़कर अत्यन्त उष्ण धूप में बैठेगा। अवतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठित्तः त्यजेत्तान्यपि सम्प्राप्य परमं पदमात्मनः ॥ ८४ ।। ( समाधिशतक)
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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