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________________ १०५ करते है । एसे मूळगुण जो कि सभी उत्तर गुणों के आधारपने को स्त आचरण विशेष है। एका पसत्यभूदा समणाणं बा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदा बाएष पर लहणि सोपखं ।। २५४ ।। (प्रवचनसार ) - तपोधनः शेषतपोधनानां वैयावत्यं कुर्वाणा सन्त: कायेन किमपि निरवद्ययावृत्यं कुर्वन्ति । वचनेन धर्मोपदेशं च । शेषमौषधानापानादिकं गृहस्थानामधीन तेन कारणेन वयाबृत्यरुपो धर्मो गृहस्थाना मुख्यः पोधनानां गौणः । द्वितीयं च कारणं निर्विकारचिच्चमस्कारभावना प्रतिपक्ष भूतेन विषय कषाय निमित्तोत्पलेनाति रौद्रध्यानद्वयन परिणसाणां ग़: स्थामात्माश्रित निश्चय धर्मस्यावकाशो नास्ति बयावृत्यादि इधर्मेण दुान वंचना भवति तगोधन संसगंण निश्चय व्यवहार मोक्ष मापदेशलानो भाति । तता नपरा लभत इस्मभित्रायः ।। (जयचन्द्राचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिः) गाथार्थ:- यह प्रशन त चर्या श्रमणों के होती है और गृहस्थी के लो मुख्य होती है मास्त्रों में ऐसा कहा गया है । उसो से गृहस्य परम सौख्य को प्राप्त होता है। तपोधन द्रुमरे साधुओं की वैयावृत्ति करते हुए अपने शरीर के द्वारा जो कुछ भी वैयावृत्य करते है वह पापारंभ ब हिंसा से हित - दुर्जन - परोपकारदुग्ध पाने सोऽपि कृतघ्न विषंप्रदाते संलग्नः । दुर्जन सम नहि विषधरः संत्रेन शाम्यति दुर्जन नरः ।। १३ ।। सुगण शतेऽपि समाश्रितोऽपि कुगुण कुरक्तः ग्रहणे शक्तः । दुर्जन समानं नहि जलौकः दूरेऽपि फुगुणः ग्रहणे शक्तः .. १४ ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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