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________________ माव-सग्रह प्रकृतियों का उदय रहता है । इस गुण स्थान में तीर्थंकर प्राति के विना एक सौ सेंतालीस प्रकृतियों का मन्त्र रहता है । अविरत सम्यग्दृष्टी गुणस्थान- दर्शनमोहनीय की तीन और अनन्तानुबंधी की चार इन सात प्रकृतियों के उपशम तथा क्षय अथवा क्षयोपशम होने से और प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ के उदय से व्रत रहित सम्यन्वृष्टी पुरुष पाये गुगली कहलाता है। तीसरे गुणस्थान में चौहत्तरि प्रकृतियां का बंध होता है उनमें मनुष्यायु देवायु और तीर्थंकर कृति इन प्रकृतियों सहित सतत्तार प्रकृति का बंध होता है। तीसरे गुणस्थान में सौ प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें से मम्यग्मिथ्यात्व की व्युच्छित्ति हो जाती है तथा चार आनुपूर्वी और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन पांच प्रकृतियों के मिलाने से एक सौ चार प्रकृतियों का उदय होता है। इस गुण स्थान में एक सी अडतालीस प्रकृतियों का सत्त्व रहता है किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टी के एक सौ इकतालीस प्रकृतियों का ही सत्व रहता है। पांचवां देश विरत गण स्थान- प्रत्याख्यानाबरण क्रोध मान माया लो। के उदय में यद्यगि संयम भाव नहीं होता तथापि अप्रत्याख्याना. रण क्रोध मान माया लोभ के उपशम के श्रावक व्रत रूप देश चारित्र होता है। इसी को देश बिग्त नामक पांचवां गुण स्थान कहते ।। पांचय आदि ऊपर के समाप्त गुण स्थानों में सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शन का अविनाभाबी सम्य-ज्ञान अवश्य होता है। इनके बिना पांचवे छट्ट आदि गुण स्थान नहीं होते। जिस गुणस्थान में कम प्रकृतियों के बंध उदय अथवा सत्व की पुच्छित्ति कही हो इस गुणस्थान तक ही उन प्रकृतियों का बंध उदय अथवा सत्त्व माना जाता है आगे के किसी भी गुण स्थान में उन प्रकृतियों का बंध उदय अथवा सत्व नहीं होता है इसीको व्यच्छित्ति कहते है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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