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ध्यान सदैव रागादि विकल्प शून्य ध्यानं
तदेव परम बीत
रागत्वं परम भेद ज्ञातं इत्यादी समस्त रागादि विकल्पोपाधि रहित परमाल्हादक सुख लक्षण ध्यानरूपस्य निश्चय मोक्ष मार्गस्थ वाचकान्यान्यपि पर्याय नामानि विज्ञेयानी भवद्धि परमात्म तत्त्वविद्भिरिति । प्र. सं. टी. ५६ - पृ १६६-१८८
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हे ज्ञानी जनो तुम कुछ भी चेष्टा मत करो अर्थात काय के व्यापार को मत करो, कुछ भी मत बोलो, और कुछ भी मन विचारों जिस से कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में तल्लीन स्थिर होवे : क्यों कि जो आत्मा में तल्लीन होना है वही परम ध्यान है ।
नित्य निरंजन और क्रिया रहित, ऐसा जो निजशुद्ध आत्मा का अनुभव है उसको रोकनेवाला जो शुभ-अशुभ चेष्टा रूप कार्य का व्यापार है उसको उसी प्रकार शुभ अशुभ अन्तरंग तथा बहिरंग वचन के व्यापार को और इसी प्रकार शुभ अशुभ विकल्पों के समूहरूप मन के व्यापार को कुछ भी मत करो जिन मन वचन काय रूप है तीनों गोगों के रोकने से स्थिर होता है वह कौन है ? आत्मा ! कैसा स्थिर होता है ? सहज सुद्ध आत्मज्ञान और दर्शन स्वभाव को धारण करनेवाला जो परमात्मतत्त्व है उसके सम्यक श्रद्धान-ज्ञान तथा आचरण लाने रुप जो अभेद रत्नत्रय है उस स्वरूप जो परम ध्यान है उससे उत्पन्न और सब प्रदेशों को आनंद उत्पन्न करनेवाला ऐसा जो सुख उरके आस्वादरूप परिणति सहित निज आत्मा में परिणत तल्लीन, तन्मय तथा तच्चित्त होकर स्थिर होता है । यही जो आत्मा के सुखरुप में परिषमन होता है वह निश्चय
(७) सरस्वती स्तोत्रम्
जगन्माता वागीश्वरी शारदा ब्रह्मचारिणी । आत्मविद्या संपादने सिद्धिर्भवतु मे सदा ।। सर्वज्ञदोभ्दुतः पवित्र तीर्थं धूनी ।
अनेकान्तो बहुभि स्याद्वादः कलध्वनि ॥ अहिंसा स्वच्छ गात्री भव्यानां तीर्थ मूर्तीः । संसार ताप ही भव्यानां मोक्षदात्री ||