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भाव-संग्रह
भावार्थ- प्रत्येक जीवके जो तीन शरीर और छह पर्याप्ति के योग्य जो मुद्गल वर्गणा आती रहती है उनको नो कर्महार कहते हैं । ज्ञानवरण आदि आठों कर्मों के योग्य जो पुद्गल वर्गणा आती है उनको
महार कहते है । मुंहमें रखकर जो खाया जाता है उसको कवलाहार कहते है, लेप कर देना लेपाहार है. अंडों के ऊपर बैठकर जो मुर्गी आदि पक्षी अंडों के भीतर गर्मी पहुंचाती है वह ओजाहार है तथा देवों के जो नियत समय पर क्षुधा लगने पर मनसे अमृत झरता है उसको मानसिय आहार कहते है । इनमें से कवलाहार, लेपाहार, ओजाहार और मानसिक आहार भगवान केवली के कभी नहीं होते ।
णोकम्प्रकम्महारो उवयारेण तस्य आयमे भणिओ ।
fe सो वि स वीयराओ परो जम्हा ।। ११३ ।। नोकर्मकर्माहारौ उपचारेण तस्य आगमे भणितौ । न हि
सोहि सनात्। ११३ ॥ अर्थ यद्यपि केवली भगवान् के तो कर्म आहार और कर्म आहार आगम मे वतलाया है परंतु वह भी उपचार से बतलाया है। निश्चय नय में देखा जाय तो वह भी नहीं है। इसका भी कारण यह है कि केवली भगवान् परम वीतरागी है। इसलिये उनके आहार की कल्पना हो ही नहीं सकती है ।
भावार्थ - यद्यपि केवली भगवान् के प्रत्येक समय में कर्म वर्गणा आती है तथापि वे ठहरती नहीं है, उसी समय खिर जाती है। इसलिये भगवान के उपचार मे ही नोकर्म वा कर्म आहार माना है तथा उपचार से ही आस्रव माना है। इसलिये वास्तव में वह नहीं के समान है। भगवान के कषायों का सर्वथा अभाव है और बिना कषायों के कर्म ठहर नहीं सकते । इसलिये भगवान के कर्म बंध का भी सर्वथा अभाव माना है। घातिया कर्मों के नष्ट होने से भगवान के अनंत चतुष्टय प्रगट हो जाते है, अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य प्रगट हो जाते है । ऐसी अवस्था में क्षुधा लगने और कवलाहार लेने की कल्पना करना सर्वथा व्यर्थ हैं और असत् है ।