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________________ भाव-संग्रह आग कबलाहार के दोष बतलाते है । जो जेमइ सो सोवइ सुत्तो अग्णे विविसयमणुहवइ । विसए अणुहबमाणो स बीयराओ कह णाणी || ११४ ॥ यो जेमति स स्वपिनि सुप्तो अन्यानपि विषयानुभवति । विषयाननुभवमानः स वीतरागः कथं ज्ञानी ।। ११४ ।। अर्थ- जो पुरुष कवलाहार करता है वह सोता भी है, जो मोता है वह पुरुष अन्य अनेक इन्द्रियोंके विषयों का अनुभव करता है तथा जो इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करता है वह वीतराग और सर्वज कैसे हो मकता है? भावार्थ- इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करना और वीतराग हाना दोनों परस्पर विरोधी है। जो इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करता है बह पाभः पतिरा नहीं हो सकता, क्योंकि विषयों का अनुभव राग से ही होता है, बिना राग के विषयों का अनुभव कभी नहीं हो सकता । यदि केवली भगवान कबलाहार लेकर सोते है और विषयों का अनुभव करते है तो वे कभी वीतराग नहीं हो सकते और जो वीतराग नहीं है वे कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकते । इसलिये मानना चाहिये किसम्हा कवलाहारो केवलिणो णात्य दोहि वि णएहि । मण्णति य आहारं जेते मिच्छाय अण्णाणी ॥ ११५ ॥ तस्मात्कवलाहारः केवलिनो नास्ति द्वाभ्यामपि नयाभ्यां । मन्यन्ते चाहारं घे मिथ्याज्ञानिनः ।। ११५ ॥ अर्थ- इसलिये यह सिन्द्वात निश्चित रुप से सिद्ध है कि केवली भगवान के निश्चय नय और व्यवहार नय दोनों नयों से कवलाहार नहीं है। फिर भी केवली भगवान के कवलाहार मानना अज्ञानता ही आगे और कहते है -
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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