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________________ भाव-गप्रह पारस्पन्दोऽति सूक्ष्मी जोकप्रवेशानामा तत्काले । लेन अणवः आगत्य आलपित्वा च पुनरपि विघटन्ते ।। ६६९ ।। अर्थ-. इस तेरहवें गुण स्थान मे रहनेवाले भगबान जिनेन्द्र देव के जीव । प्रदेशों का परिम्पंदन अत्यन्त सूक्ष्म होता है इसी लिये शुभ कमों की वर्गणाए आती है और उसी समय चली जाती है । उनके आन्गा के प्रदेशा में वे कर्म वर्गणाए ठहरती नहीं है । आगे इसका कारण बतलाते है । जे णस्थि राय दोसो तेण ण वंधोहु अस्थि केवलिणो । जह सुक्क कु लग्गा वाल झडियंति तह कम्मं ॥ यन्न स्त; राग द्वेषौ तेन न धन्धोहि अस्ति केवलिनः । यथा शुष्क कुडच लग्ना: वालुका निपतन्ति तथा कर्म ।। ६७०।। अर्थ- उन केवली भगवान के राग द्वेष कर्म का सर्वथा अभाव हो जाता है इसलिये उनके कर्मों का बध कभी नहीं होता । जिस प्रकार सुखी दीवाल पर लगी हुइ बालू उसी समय झड जाती है । सूखी दीवाल पर वालू ठहरती नहीं उसी प्रकार विना राग द्वेष के आत्मा के प्रदेशों मे कर्म भी नहीं ठहरते है । भावार्थ- स्थिती बंध और अनुभाग बंध दोनो कषायो से होते है । केवली भगवान के राग द्वेष का सर्वथा अभाव है इसलिये वहा पर स्थितीबंध और अनुभाग बंध भी कभी नहीं होते है। अत्यन्त सूक्ष्म काय योग होने से शुभ कर्म आते है परन्तु वे उसी समय झड जाते है । ठहरते नही। ईहा रहिया किरिया गुण वि मधे वि खाया तस्स । सुक्खं सहावजाय कमकरण विधज्जियं गाणं । ईहारहिता क्रिया गुणा अपि सर्वेपि क्षायिकास्तस्य । सुखं स्वभाव जातं क्रम करण विश्वजितं नानम् ॥ ६७१ ।। अर्थ- भगवान जिनेन्द्र देव की विहार, दिव्य ध्वनी आदि क्रियाएं सब ईहा रहित वा इच्छा रहित होती है । इसका भी कारण यह है कि राग द्वेष के साथ ही उनकी इच्छाएं सब नष्ट हो जाती है । इसीलिये उनकी समस्त क्रियाएं इच्छा रहित होती है, उनके समस्त गुण क्षायिक
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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