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________________ भाव-संग्रह भी कारण यह है कि सिद्धांत सूत्रों में अथवा उमास्वामी कृत तत्त्वार्थ मुत्र में बा उसकी समस्त टीकाओं में जीवो के प्रधान भाव पांच प्रकार के बतलाये है । औपशमिक शायिक क्षायोपशमिक औदायिक और पारिगामिक ये पांच भाव बतलाये है । इसलिये क्षायोपमिक सम्यग्दर्शन के विना पांचों भावों को पूर्ति हो नहीं हो सकती। इसलिये क्षायोपसमिक भाव और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन मानना अत्यावश्यक है। आगे सभ्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाते है। तं सम्मतं उत्तं जस्थ पयत्थाण होई सद्दहणं । परमप्पह कहियाणं परमप्षा दोसरिचितो ॥ २७२ ।। तत्सम्यक्त्वमक्तं यत्र पदार्थानां भवति श्रद्धानम् । परमात्म कथितानां परमात्मा दोष परित्यक्तः ।। २७२ ।। अर्थ- परम परमात्मा वीतराग सर्वज्ञ देव श्रीजितेंद्र देव है उनके कह हुए समस्त तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । वह परमात्मा वा श्रीजिनेंद्रदेव ममस्त दोषों से रहित ही होते है । दोसा छुहाइ भणिया अट्ठारस होति तिविह लोयम्मि । सामाण्णा सयल जणे तेलि अहावेण परमप्पा ॥ २७३ ।। दोषा क्षधादयो भणिता अष्टादश वन्ति त्रिविधलोके । सामान्या सकलजने तेषामभाबेन परमात्मा ।। २७३ ।। य कहे हुए क्षुधादिक अठारह दोष सामान्य रीति से तीना लाकों के समस्त जीवों में रहते है । जव इन समस्त दोषों का नाश हो जाता है तभी यह जीव परमात्मा हो सकता है। भावार्थ- परमात्मा वही हो सकता है जो वीतराग और सर्वज्ञ हो। नया बीतराग वही हो सकता है जो अठारह दोषों से रहित हो और विना वीतराग हुए सर्वज्ञ नहीं हो सकता । इसलिये जो अठारह दोषों मे रहित होता है वही परमात्मा होता है। आये परमात्मा के भेद बतलाते है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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