________________
भाव-सग्रह
३०९
आठवां अपूर्व करणगुणस्थान- जिस करण में उत्तरोत्तर अपूर्व परिणाम होते जाय अर्थात् भित्र समय वर्ती जीवों के परिणाम सदा विसदृश ही हो और एक समय वर्ती जीवों के परिणाम सदृश भी हो और विसदृश भी हों उसको अपूर्व करण कहते है और यही आठवा गुणस्थान है ।
सातवे गुणस्थान में उनसठ प्रकृतियों का बंध कहा है उनमे से एक देवायु प्रकृति की व्युच्छित्ति हो जाती है शेष अट्ठावन प्रकृतियों का बंध इस आठवे गुणस्थान में होता है ।
सातवे गुणस्थान में जो छिहत्तरि कृतियों का उदय कहा है उनमे से सम्यक् प्रकृति अर्द्ध नाराच कीलक असमाप्ताबाटक इन चार प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है इसलिये चारके घटाने पर शेष बहत्तर प्रकृतियों का उदय इस गुणस्थान में होता है ।
सातवे गुणस्थान मे एकसो छियालीस प्रकृतियों का सत्त्व कहा है उनमें से अनंतानुबंधी कोष मान माया लोभ इन चार प्रकृतियों की उच्छित्ति हो जाती है इस लिये द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणी बाले के तो एकसो व्यालीस प्रकृतियों का सत्त्व रहता है किंतु क्षायिक सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणी वाले के दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृति रहित एकसो उन्तालीस प्रकुलियों का सर है और क्षपक श्रेणी वाले के अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ दर्शन मोहनीय की तीन और देवायु इन प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है। इसलिये एकसी छियालोस मे से आठ घटाने पर शेत्र एकसी अडतालीस प्रकृतियों का सस्व रहता है ।
अनिवृत्तिकरण- जिस करण मे भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश ही हो उसको अनुवृत्ति करण कहते है । यही नोवां गुणस्थान है । इन तीनों ही करणों के परिणाम प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धता लिये होते है ।
आठवे गुणस्थान में अट्ठावन प्रकृतियों का बंध कहा है उनमें से निद्रा, प्रचला, तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त विहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मेण शरीर, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, सम