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________________ ९६ ते कहिय धम्म लग्गा पुरिसा डहिऊण सकयपावाई | पार्वति मोक्खं सोक्ल केई विलसंति सोसु १९३ ॥ मात्र-संग्रह तेन कथितधर्मे लग्नाः पुरुषा वग्ध्वा स्वकृतपपानि । प्राप्नुवन्ति मोक्षसौल्यं केचिद् विलसत्ति स्वर्गेषु || १९३ ।। अर्थ - जो पुरुष एस निग्रंथ परम गुरु के कहे हुए धर्म का सेवन करते है वे पुरुष अपने समस्त पापों को नाश कर मोक्ष के अनंत सुख प्राप्त करते हैं तथा उनमें से कितने पुरुष स्वर्ग के सुख भोगते है । एवं मिच्छदिट्टि ठाणं कहि मया समासे । एत्तो उड़ढ बोच्छ विदियं पुरा सामणं णामं ॥ १९४ ॥ एवं मिथ्यादृष्टिस्थानं कथितं मया समासेन । इस ऊर्ध्वं वश्ये द्वितीय पुनः सासादनं नान ।। १९४ ।। अर्थ - इस प्रकार अत्यंत सक्षन से मिय्यात्वगुणस्थान का स्वरु कहा । अब आगे दूसरे सासादन नाम के गुणस्थान का स्वरूप कहते है । इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान का स्वरूप वा मिथ्यात्व गुणस्थान में होनेवाले परिणामों का स्वरूप कहा । अब आगे सासादन गुणस्थान का स्वरूप कहते है । एयवरस्स उदयं अनंतवधिस्स संपरायस्स । समयाइ छविलिति य एसो कालो समुद्दिठ्ठो । १९५ एकतरस्योदयेऽनन्तानुबन्धिनः साम्परायस्य । समयादि षडावलानि च एषः कालः समुद्दिष्टः । १९५ ।। अर्थ- किसी भव्य जीव के काल लब्धि के निमित्त से प्रथम उपकाम सम्यक्त्व को प्राप्ति होती है। उस उपशम सम्यक्त्व का काल अंत महूर्त है । जब उस अतर्मुहूर्त काल के समाप्त होने में कम से कम एक समय और अधिक म अधिक छह आवली शेष रह जाती है तब अनन्ना नुबंधो को मान माया लोभ मे से किसी एक प्रकृति का उदय हो जाता है । उस प्रकृति के उदय होने से सम्यग्दर्शन छूट जाता है परन्तु मिथ्यात्व प्रकृति का उपशम होने से मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं होता |
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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