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________________ भाव-सग्रह इय अगागी पुरिसा कुच्छियगुरुकायमग्गसंलग्गा । पावंति गरय तिरयं णाणा दुहसंकर्ड भीमं ॥ १९० ।। इति अज्ञानिनः पुरुषाः कुत्सितगुरुकथितमार्गसंलग्नाः । प्राप्त यति नरकं तिर्यचं नाना दुःखसकटं भोमम् ।। १९० ॥ अर्थ- इस प्रकार जो पुरुष निकृष्ट कुगुरुओं के द्वारा कहे हुए मिध्या भार्ग में ला रहते है वे पुरुष नरक वा तीयंच योनि में पडकर यंत भयानक मे अनेक प्रकार के महा दुःख भोगा करते है। एवं णाऊण फुड सेविजई उत्तमो गुरु कोई। वहिरंतरगंथचुी तिरियणवतो सुणाणो य || १९१ ।। एवं ज्ञात्वा स्फुट सेव्यतां उत्तमो गरुः कश्चित । वाह्याभ्यन्तवनथच्यतः तरणवान् सुज्ञानी च ॥ १९१॥ अर्थ- आचार्य कहते है कि इस प्रकार कुगुरुओं के कहै अनुसार महा दुःख भोगने पड़ते है। ऐसा समझ कर एसे उत्तम मुरु की सेवा करनी चाहिये जो बाह्य आभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित हों स्वयं तरनेवाला और भव्य जीवों को तारनेवाला हो, और सम्यग्ज्ञान को धारण करनेवाला हो । जड़ जाय लिंगधारी विसविरत्तो य णिहयसकसाओ । पालयविठवधओ सो पावट् उत्तमं सोक्खं ।। १९२ ॥ यथाजात लिंगधारी विषयविरक्तश्च निहतस्वकषायः । पालितद व्रह्मवतः स प्राप्नोति उत्तम सौख्यम ॥ १९२ ।। अर्थ- जो गुरु जात लिंगधारी हो अर्थात् जिस प्रकार उत्प होता है उसी प्रकार समस्त परिग्रहों से रहित नग्न अवस्था को धारण करनेवाला हो, इन्द्रियों के समस्त विषयों से विरक्त हो, जिसने अपनी समस्त कषायें नष्ट कर दी हों और जो ब्रह्मचर्य व्रत को पूर्ण रीति से दृढता के साथ पालन करता हो, ऐसे परमगुरु की सेवा करने से ही यह जीव निराकुल सुख की प्राप्ति कर सकता है ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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