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भाव-संग्रह
ई इलिये उन पापों के साथ प्रमाद भी रहते ही है । परन्तु इम छर गण स्थान मे पापों का मर्वथा त्याग हो जाता है पंच महाव्रत धारण किये जाते है तथा उनके साथ प्रमाद भी रहते है पापों का त्याग होने पर भी प्रमादों का त्याग नहीं होता इसलिये इस गुण स्थानको प्रमत्त विस्त कहते है ।
आगे इस गुण स्थान का लक्षण कहते है। वत्ताबत्त पमाए जो णिवसइ पमतसंगदो होइ । सयल गुण सील कलिओ बबई चित्तलायरणो ॥ व्यक्ताध्यक्त प्रमादे यो निवसति प्रमत्त संयतो भवति । सकल गुणशील कलितो महाव्रतो चित्रलापरणः ६०१ ।।
अर्थ- जो मुनि अट्ठाईस मूल गुणों को पालन करते है शील वा उत्तर गुणों को पालन करते है महायतों का पालन करते है ऐसे मुनि अब व्यक्त वा अव्यका का प्रमाद से निास है तमालपत संयत वा प्रमत्त संयमी मुनी कहलाते है । ऐसे मुनियों का चारित्र अत्यंत शुद्ध नहीं होता किन्तु अनेक रंगों से बने हुए चित्र के समान होता है। भावार्थ- प्रमाद के होने से कुछ ना कुछ दोष उसमें लगे ही रहते है ।
आगे प्रमादो को कहते है। चिकहा तय कसाया इंदियणिद्दा तहय पणओ य । चउ चउ पण भेगेगे हुंति पमाया हु पण्णरसा ।। विकाथास्तथा च कषायर इन्द्रियाणि निद्रा तथा च प्रणधश्च । चतस्त्रः अत्वारः पंच एका एकः भवन्ति प्रमाहि पंचदशा ।६०२।
अर्थ- चार विकथा चार कषाय पांत्र इन्द्रियां निद्रा और प्रणय ये पन्द्रह प्रमाद कहलाते है।
भावार्थ- राजकथा, मोजन कथा, देश कथा, और चोर कथा ये चार विकथाएं कहलाती है । इन कथाओं के सुनने से वा कहने से पाप का बंध होता है इसलिये इनको विकथा कहते है।