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________________ २५६ भाष-संग्रह सिद्धसरूवरूवं कम्म रहियं च होइ झाणेण । सिद्धावासी य णरो ण वह संसारिओ जीवो ।। सिळ स्वरुपरुपं कर्म रहितं च भवति ध्यानेन । सिद्धावासो च नरो न भवति संसारी जीवः ।। ५९८ ।। अर्थ- सिद्धों का म्वरूप शुद्ध आत्मस्वरूप होता है तथा जय ध्यान के द्वारा समस्त कमी से रहित हो जाता है । सिद्धम्यान मे रहने वाले समस्त सिद्ध परमेष्ठी जीव फिर कभी भी संसार नहीं आते हैं। पंचमयं गुणठाणं एय कहिय मया सभासेण । एत्तो उजुडं वोच्छं पमत्तविरयं तु छमयं 11 पंचमं गुणास्थानं एतत्कथितं मया समासेन । इत्त अवं वक्ष्ये प्रमविरतं तु षष्ठमकम् ।। ५९९ ।। अर्थ-- इस प्रकार मैंने अत्यंत संक्षेप से पांचबे गुण स्थान का स्वरूप कहा । अव इस के आगे प्रमत्तविरत नाम के छठे गुणस्थान का म्वरूप कहता हूँ। इस प्रकार विरता विरत नाम के पांचवे गुण स्थान का स्वरूप समाप्त हुआ आगे छठे प्रमत्त संयत गण स्थान का लक्षण कहते है। इत्थेव तिपिण भावा खय उय समार होति गणठाणे । पणदह हुँति पमाया पमत्त विरलो हवे तम्हा ।। अत्रैव ऋयो भानाः क्षयोयक्षमावयः भवन्ति गुणस्थाने । पंचपदश भवन्ति प्रमादा प्रमत्तविरतो भवेत्तस्मात् ।। ६०० ।। अर्थ- इस प्रमत्त विरत नाम के गुण स्थान मे औपसमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक तीनों प्रकार के भाव होते है, तथा पंद्रह प्रमाद भी इसी गुण स्थान तक होते है इसलिये इम गुण स्थान को प्रमन विरत कहते है । भावार्थ-यद्यपि प्रमाद सब नीचे के गुण स्थानों में ली रहते है परन्तु नीचे के गुन स्थानों में पापों का सर्वथा त्याग नहीं
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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