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________________ २५८ भाव-संग्रह क्रोध मात्र माया लोभ यं चार कषाय है । से भी पाग बन्द के कारण है। पांचों इंद्रियों के विषय भी पाप बंध के कारण है निद्रा पाप वन्ध का कारण है हो । तथा स्नेह वा प्रणय भी पाप बन्ध का कारण है इसलिये इन सब को प्रमाद कहते है तथा इन्ही प्रमादों के कारण चारित्र की अत्यन्त शुद्धता' नहीं होती । प्रमादों के कारण उनमें दो बा अशी उत्पन्न हो ही जाती है। आगे इस गुण स्थान मे कौनसा ध्यान होता है सो बतलाते हैं । झायइ धम्मज्ञाणं अहं पि य णो कसाय उवयाओ । समाय भावणाए उवसामइ पुणु वि झाम्मि । ध्याति धर्म्य ध्यानं आतमपि नो कषायो क्यात् । स्वाध्याय भावनाभ्यां उपशाम्यति पुनरपि ध्याने ।। ६०३ ।। अर्थ- छठे गुण स्थान मे रहने वाले मुनि धर्मध्यान का चितवन करते है । तथा नो कषाय के उदय होने से उनके आतध्यान भी हो जाता है । तथापि स्वाध्याय और रत्नत्रय की भावना के कारण उसी ध्यान में वे उस आर्तध्यान का उपशम कर देले है । भावार्थ- मनियों के आर्तध्यान कभी कभी होता है तथा तीन ही प्रकार का आर्तध्यान होता है निदान नाम का आतध्यान नहीं होता। यदि किसी मनि के निदान नामका आर्तध्यान हो जाय तो फिर उस मुनि का छठा गुण स्थान ही छूट जाता है। तज्माण जाय कम्म खवेह आवासहिं परिपुण्णो । णिदण गरहण जुत्तो पडिक्कमण किरियाहि ।। तद्ध्यान जातकर्म क्षिपति आवश्यक परिपूर्णः । निन्दनगर्हण युक्तो युक्तः प्रतिक्रमण क्रियाभिः ।। ६०४ ।। अर्थ- छठे गुण स्थान में रहने वाले वें मुनि' अपने छहों आवश्यको को पूर्ण रीति से पालन करते है । तथा उन्ही आवश्यकों के द्वारा उस स्वल्प आर्तध्यान में उत्पन्न हुए कर्मों को नाश कर देते है । इसके सिवाय वे मुनि उस आर्तध्यान के कारण अपनी निन्दा करते रहते हैं और अपनी गहीं करते रहते है प्रतिक्रमण करते रहते है और अपनी समस्त क्रियाओं का पालन करते रहते है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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