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________________ भाव-संग्रह २५९ जाव पमाए वदुइ जाथिरं थाइ णिञ्चल झाणं । णिदण गहण जुतो आवसइ कुणइ ता भिक्खू ।। यावत्प्रमादे वर्तते पावन स्थिर तिष्ठति निश्चल ध्यानम् । निन्दन गर्हण युक्तः आवश्यकानि करोति तावद् भिक्षुः ।।६०५।। अर्थ- ये छठे गुणस्थान में रहने वाले मुनि जबतक प्रमाद सहित रहते हैं जबतक उनका निश्चल ध्यान अत्यंत स्थिर नहीं होता है तब तक वे मुनि अपनी निन्दा करते रहते है नहीं करते रहते है और छहों आवश्यक्रां को पूर्ण रीति से पालन करते रहते है । छट्ट मए गुणठाणे वदंतो परिहाइ छावासं । जो साहु सोण मुणई परमायम सार संदोहं ।। षष्ठमके गुणस्थाने वर्तमानः परिहरसि षडावश्यकानि । य: साधुः स न जानाति परमागमसारसन्दोहम् ।।६०६ ।। अर्थ- जो साधु छठे गुणस्थान में रहकर भी छहों आवश्यकों को नहीं करता वह साघु परमागम के सार को नहीं समझता ऐसा समझना चाहिये । भावार्थ- छठे गुणस्थान में रहने वाले मुनियों को छहों अबश्यक अवश्य करने चाहिये और प्रतिदिन ही करने चाहिये । इनको कभी नहीं छोड़ना चाहिये । आगे जो साधु आवश्यक नहीं करता उसके लिये कहते है। अहब मुशंतो छडइ सव्यावासाई सुत्तबद्धाई। तो तेण होइ चत्तो सुआयमो जिणवावस्स ।। समता बन्दना स्तोत्रं प्रत्याख्यानं प्रतिक्रिया। व्युत्सर्गश्चेति कर्माणि भवन्त्यावश्यकानि षट् ॥ समता धारण करना, बन्दना करना, स्तुति करना, प्रत्याख्यान वा त्याग करना' प्रति क्रमण करना और व्युत्सर्ग करना ये छह आवश्यक कहलाते है ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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