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________________ ७५ अक्षताओं से पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और १४ रनोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है । सदा अक्षीय अर्थात रोग, शोक रहित निर्भय रहता है, अक्षीण लब्धि से संपन्न रहता है और अंतमें अक्षय मोक्ष सुखको पाता है । कुसुमेहि कुसुसेय वयणु तरुणी जन णयण । कुसुम वरमाला वलारणच्चियवेहो जय कुसुमाउहो चेव ।।४८५।। (व. सु. श्रा. ) पुष्पो से पूजा करने वाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुखवाला तरुणी जनों के नयनों से और पुष्पों की उत्तम मालाओं के समुह से समर्चित देहवाला कामदेव होता है । जायइ णिविज्ज दाणेण सत्तिगो कति-तेय संपण्णो। लावण्ण जाह वेला तरंग संण्णविय सरीरे ।। ४५६ ।। (वसु.) नैवेद्य के चढाने से मनुष्य शक्तिमान, कांति और तेज से सम्पन्न और सौंदर्यरुपी समुहकी बेला ( सद ) वर्ती तरगों से संप्लावित शीर वाला अर्थात अतिसुन्दर होता है । बोहि वीषिया सेस जोव व इतच्च सम्मावो। सम्माय जणिय केवल पहबतेंएण होइणरो ॥ ४८७ ।। (वसु.) दीपसे पूजा करनेवाला मनुष्य सद्भावों के योग से उत्पन्न हुए केवलज्ञान रुपी प्रदीप के तेज से समस्त जीव द्रव्यादि तत्त्वों के सदस्य अनित्य ( अनित्स ) राम गये रावण गये, गये तीर्थकर । जो आत्मा में स्थिर मये, ताके न हेर न फेर ॥ -- अशरण - पार्व पर उपसर्ग भये, कोई न रखना हार । जो अपना आश्रय लहे ताके न मारन हार ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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