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________________ ७६ को प्रकाशित करनेवाला अर्थात केवलज्ञानी होता है। धूवेण सिसिरयर धवलकित्ति धपलिजयसओ पुरिसो । जायइ फलेहि संपत्त परमणिबाण सोक्ख फलगे ॥ ४८८ ।। धूप से पूजा करनेवाला मनुष्य चंद्रमा के समान धवल किर्ती से जगत्रय को धकल करने वाला अर्थात त्रैलोक्य व्यापी ययवाला होता हे फलों से पूजा करने वाला मनुन्य परम निर्माण का सुख रुप फल पाने वाला होता है। घंटाहि घंटा सदाउलेसु पवर झण्णमच्झाम्मि । संकोउप सुर संघाय सेविओ वर विमाणेसु ।। ४८९ ।। जिन मंदिर में घंटा समर्पण करने वाला मनुष्य धंटाओं के शब्दों से आकुल अर्थात व्याप्त, श्रेष्ठ विमानों मे सुर-समुह से सेवित होकर प्रवर अपसरावों के मध्य में कीश करता है। छत्तेहि एयद तं मुंह पुट्टयो सवत परिहिणो । चामर बाण तहा धिज्जिज्जइ चमरणवि हेहि ।। ४१० ॥ छत्र पूजन करने से मनुष्य शत्रू रहित होकर पथ्वी को एक छत्र भोगता है । तथा चमरों के यान से चमरों के समुहो द्वारा परिविजित किया जाता है, अर्थात उसके उपर बमर ढोरे जाते है । ४९० अहिसेय फलेण णरो अहिसिंचज्जइ सुन्दसणस्सुवरि । रवीरोय जलेग सुरिवष्प मुह देवेहि भत्तोए ।। ४९१ ।। जिन भगवान के अनिषेक करने के फल से मनुष्य सुदर्शन मेरु के । उपर क्षीर सागर के जल से सुरेन्द्र प्रमुख देवों के द्वारा भक्ति के माथ अभिषिक्त किया जाता है ।। ४९१ ।। विजय पडाएहिणरो संगाय मुहेतु विजइओ होइ । दरखंड विजयणाहो णिप्पडिवतो असस्सी य ।। ४९२ ।। जिन मंदिर में विजय पताकायों के देने से मनुष्य संग्राम के मत्र्य विजयी होता है । तथा षट्खंडरूप भारतवर्ष का निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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