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________________ भाव-संग्रह फिर लाटकर अपने घर को आ मकेगा ? नावार्थः- स्मरण ज्ञान बना रहने ने बालकपन की बातें म्मरण रहती है और म्मग्ण जानसे ही बाहर गया हुआ जीर घाग याला है। ___ आगे चेतना शक्ति को क्षणिक मानने से उत्पन्न हुए दोष दिवलाते ।। जई चेयणा अणिच्चा तो कि चिरजाय वाहि समराई। बहराइ वि मिचाइ वि कह जाणइ दिमित्ताई ॥ ६७ ।। यदि चेतना अनित्या तहि कथं चिरजातव्याधि स्मरति । वैरिण अपि मित्राण्यपि कथ जानाति दुष्टिमात्रेण ।। ६७ ।। अर्थ- बदि आत्मा को चेतन्य शक्ति गी अनित्य वा क्षणिक है तो यह जीव अपने शरीर में उत्पन्न हुई चिरवाल की व्याधि का स्मरण केसे करता है तथा देखने मात्रमे ही अपने शत्रु बा मित्रों को कैसे पहिचान लेता है। भावार्थ- जीवादिक समस्त पदार्थ कभी किसी कालमें भी क्षणिक मिद्ध नहीं हो सकते । यह जीव चिरकालकी व्याधिको भी स्मरण कर. लेता है और देखते ही शत्रु वा भित्रको पहचान लेता है । उस जीवको चेतना में बिना नित्यता माने य दोनों ही काम कभी नहीं हो सकते । आगे सर्वथा क्षणिव मानने वाले में और भी दोष दिखलाते है । पत्त पडियं ण दूसइ खाइ पलं पियइ मज्जु णिल्लज्जो । इच्छइ सरगरगमणं मोक्खामणं च पायेण ।। ६८ ॥ पात्रे पतितं न दूषयति खादति पल पिबति मद्यं निर्लज्जः ! इच्छति स्वर्गगमनं मोक्षगमनं च पापेन ॥ ६८ ।। अर्थ - क्षणिकवादी लोग अपने पात्र में (वर्तन में) आये हुए भक्ष्य अभक्ष्य आदि पदार्थों में कोई दोष नहीं मानते । वे लोग निर्लज्ज होकर मांस भी खाते हैं और मद्य भी पीते है । तथा इस प्रकार महा पाप करते हुए भी उस पापके फलसे स्वर्ग प्राप्त होजाने की बा मोक्ष
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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