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गुणस्थानवर्ती जीत्र निश्चयज्ञ हूँ। उसके नीचे के गुणस्थानवर्ती जीव निश्च यज्ञ नहीं है। पूर्ण निश्वज्ञ तो केवलज्ञानी अरिहंत एवं सिद्ध ही है। जो परिग्रहदि धारण करके स्त्री भांगकर, विजय कषायों में स्वपच होते हु अपने को निश्चयज मानना है वह रूक है। और उसी प्रकार गृहस्थ श्रावक की पंडितों को भी अथवा निर्विकल्प समाक्षिसे नीचे स्थित नयों को भा जो निश्ववज मानता है, वह भी अम के रहस्य को नहीं जाना वह भी अकारमय ही है।
मुख्यरूप से समयसार किस के लिए
" अत्र ग्रंथ वस्तुवृत्या बोतराग नम्वरदृष्टे द्रणं वस्तु चतुर्थ गुणस्था
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नव न्यस्तस्य गणल्या गुफ
स. सा. त. नृ २२ जयसेनावास
इस ग्रंथ में वास्तविक चराग सम्यग्दृष्टि (ध्यानस्थ एव श्रेणी स्थित मुनि) का ही ग्रहण | परन्तु चतुर्थ गुणस्थानवती अविरत स्यदृष्टि का कन यहाँ गौण है ।
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ध्यान स्थित मुनि समयमारमे वर्णित विषयों का अनुभव करता है; आचरण करता है. अधान करता है। मानना है जानता है, इसलिये सम-सारका विषय मुख्य रूप से मुनियों के लिए हैं उसके नीचस्थ सम्बदृष्टि जन जैसे छ । गुणस्थान स्थित मुनि, पाँचवें गुणस्थानवर्ती देशी श्रावक एवं गुणस्थानबल असंयत सम्यग्दृष्टि जीव समयसार के पूर्ण आवरण न कर पाते है। चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव मुख्यवर्ती से श्रध्दान करता है किंतु आचरण में नहीं ला पाता है उसके लिये समयसार गोण है। सम्यग्वष्टि जीव केवलम्वी का श्रश्वान करता है परंतु पवेन्द्रियों के से विरत नहीं हो पाना है. भोग-उपभोग को भोगना रहता है, धनोबाजन के लिये व्यपार धंधा करके स और स्थावर का भी बध करता रहता है. मन सतत राग-द्वेष कामादि विषय वासना में रत रहता है, अत्यन्त स्थूल अणुव्रत भी धारण नहीं कर पाता हैं, उसका अन्तरंग - बहिरंग परिग्रह रहने के कारण उसका मन क्षुभित रहता है। मन और इन्द्रियों की वश करने में वह समर्थ नहीं हो पाता है जिससे वह स्थूल परिग्रह त्याग नहीं कर पाता है । जब वह उत्कृष्ट धर्म व पुण्यकर्म, शुभोपयोग भी नहीं कर पाता है तब वह कैसे अत्यन्त सूक्ष्म अन्तरंग परिग्रहों को त्याग करके मन को वर्ती करके कैसे निविकल्प ध्यान कर सकता है ? इसलिए समयसार के विषय को सम्यग्दृष्टि अदान करता है, किंतु आधरण नहीं कर पाता है,