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________________ उसका पोल अल नामिक पात्रों को बाहर बामे अदते हा अन्त रग-बहिरंग एग्रह को छोडो हुा आर्त-राद्र ध्यान को नष्ट करते म ध्यान का माते हुए मुनि म को घाण करते हुए निविकल्प भमाधि मे लोन होता है सब समयसार को प्राप्त कर सकता है। जब तक इस अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है तब तक यथायोग्य दान-पूजा-अभिषेक पड़ावश्यक, प्रनिकमण, प्रत्याख्यान, नीर्थ-पाया, देवदर्शन-जपतपमामायिक आदि शम क्रियायें करना चाहिये, जो कि आत्म-विशुद्धि के लिए कारण पाप निर्जर के लिये कारण पुरा प्रबंध का कारण. एवं परंपरा माक्ष के लिए कारण है । यदि श्रावक अवस्था में रहते हुए यथायोग्य श्रावकों की क्रियाओं को नहीं करता है यह इतोभ्रष्ट ततोभ्रष्ट अभ्यभ्रष्ट है। इसा प्रकार मुनि भी निविलम समाधि को प्राप्त नहीं करता है तब तक रसमलाण. देववादनाटि षट् आवश्यक निर्दोष पूर्वक पालन करना चाहिय, या: इन शुभ किओं मे पध होता है गा मानकर पाग का देगा तो वह भी उसयनल है. क्योकि धर-द्वार स्त्री कुटुम्बादि को छोडकर इसलंक सुख से वंवित है, तथा स्वातंत्र्य पालन नहीं करने से परलोक सुख से भी वंचित हो जायेगा । जो के पल संसारिक मुख भोगते हुए, परिग्रह की संचय करते हुए, स्त्री कुटुम्ब का सुख लेते हुए भोग से योग मानते हुए भक्ति से मुक्ति मानने हुए, संभोग से समाधि मानते हुए स्वयं को मोसनामो मुमुक्षु बीत रागी मानते हैं वह अपने को धोखा दे रहा है । क्योंकी उमरीन कार्य अहमा से विपरीत हान के कारण उससे मोहनीयादि तोत्र पाप बध होते है जिससे के बल संसारिक घोर दुःख हो दुःख मिलता है । " दो मुख पन्थी चले न पन्था, दो मृग्व मुई मिये न कन्था । दोय बात नहि होर मयाने, विषय भोग अरु मुक्ति पाने " गगदेषके त्याग विना याग्थ पद नाहीं । कोटि ग्रन्य पद्धो ध्याख्या क रोसब अकारज जाहि ।। समयसार क्या ? उसका अनुभव कौन कर सकता है ? कम्म बद्धमत जीवे तु जाण णयपखं । पातिकतो पूण भण्णति जो सो समयसारो ।। समयसार । गा १५० जीव मे क्रम बन्धे हुये है अथवा नहीं बन्धे हुए है इस प्रकार तो नम पक्ष जानो और जो पक्ष से दूरवर्ती कहा जाता है, यह समयसार है निर्विकल्प शुद्धात्म तत्व है। " ततो स एव समस्तं जयपक्षमासिक्रमति स एव समस्त विकल्पमक्ति
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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