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कल्याण नगर में विक्रम राजा की मृत्यु के ७०५ वर्ष बीतने के बाद तथा दूसरी प्रति के अनुसार २०५ वर्ष बीतने के बाद श्रीकलश नापक श्वेताम्बर साधु द्वारा यापनीय संघ का उद्भव हुआ। यापनीय संघवाले दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों को मानते है, रत्नत्रय को पूलने हैं, कल्पश्रुत को पढ़ते हैं, स्त्रियों को उसी भव में मोक्ष मानते हैं, के वलियों को कवलाहार मानते हैं । परमत वालों ( मिथ्यात्व वादियों को) और परिग्रह धारियो को भी मोक्ष बताते हैं। ५) निपिच्छिक संघ - (माथुर संघ)
तत्तो दुसए तीदे महुराए माहुराण गुरुणाहो । णामेण रामसेणो णिप्पिच्छं वण्णियं तेण ॥४०॥ सम्मत पडि मिच्छंतं कहियं जं जिणिद बिबेसु । अन्य यरणिठ्ठिएसु य ममत्त बुद्धीए परिवसणं ॥४१॥ एमो मम होऊ गुसो अवरो णस्थि त्ति चित्त परियरणं । सग गुरू कुलाहि माणो इयरेमु वि भंग करणंच ॥४१॥ काष्ठा संघ के २०० वर्ष पश्चात विक्रम सं. ९५३ मे मथरा
नगरी में माथुर संघ के प्रधान गुरु रामसेन हुए। जिन्होंने निपिच्छ रहने का उपदेश दिए। उन्होंने अपने और पराये प्रतिष्ठित किए हुए जिनविम्बों की ममत्व बुद्धि के द्वारा न्यूनाधिक भावों से पूजा वंदना करने एवं यह मेरा गुरु है दूसरा नहीं है इस प्रकार के भाव रखने और अपने गुरु कुल का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मान भंग करने के लिये सम्यक्त्व प्रकृति रुप मिथ्यात्व का उपदेश दिये।
पिच्छे ण हु सम्मत्तं कर गहिए मीर चमर डंबरए । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि झायवो ||१|| सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य । समभाव भावियप्पा ल्हेय मोक्खं ण संदेहो ।।२।।
मोर पंख या चमरी गाय के बालों को पिच्छ हाथ में लेने से सम्यक्त्व नहीं है । श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बुद्ध हो या अन्य कोई