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भाव-संग्रह
साथ साथ अवश्य डूबता है ।
एवं पत्तविसेसं पाऊणं देह दाणमणवरयं । णिय जीव सग्गमोक्खं इच्छयमो पयत्तेण ।। ५५६ ।। एवं पात्र विशेष ज्ञात्वा वहि दानमनधरतम् । निज जीव स्वर्गमोक्षाविच्छन् प्रयत्नेन ।। ५५६ ।।
अर्थ- जो पुरुष अपने आत्मा को स्वर्ग मोक्ष में पहुँचाना चाहते है उनको चाहिये कि वे ऊपर लिये अनुसार पात्र अपायों के भदों को अच्छी तरह समझ कर प्रयत्न पूर्वक सदाकाल उत्तम पात्रों को दान देते रहे।
आगे समर्थ होकर भी जो दान नहीं देता उस लिये कहत है । लहिण संपया जो देइणबाणाई मोह संछण्णो । सो अप्पाणं अप्पे बचेइ य त्थि संदेहरे ।। लध्या सम्पत् यो वदाति न दानादि मोहसंच्छन्नः ।
स आत्मानं आत्मना वंचति च नास्ति सन्देहः ।। ५५७ ।।
अर्थ- जो पुरुष धन संपदा पाकर भी उसमे अत्यन्त मोह करता है और पात्रों को भी जान नहीं देता वह अपने ही आत्मा के द्वारा अपने ही आत्मा को ठगता है इसमे किसी प्रकार का संदेह नहीं है।
जय देव णेय भुंजइ अत्थं णिखणेइ लोहसंछण्णो । सो तणकय पुरिसो इव ररूषइ सस्सं परस्सस्थे ।। न च ददाति नव गुंक्तेऽर्थ निक्षिपति लोभ संच्छन्नः ।
स तणकृत पुरुषः इस रक्षति सस्य परस्यार्थे ।। ५५८ ।।
अर्थ- जो धनी पुरुष न तो किसी को दान देता है न अपने भोगोपभोगों मे धन को लगाता है केवल तीव्र लोभ में पडकर उसकी रक्षा करता रहता है वह पुरुष घास-फुस के बने हुए पुरुषाकार पुतले के समान केवल दूसरों के लिये खेतों की रक्षा करता है । भावार्थ- बहुत से लोग घासफुस का पुतला बनाकर खेतों में गाड देते है उसको देखकर