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________________ भाव-संग्रह २४१ बडापन का अम्मिान करते है जो क्रोधी है लोभी है साथ उठाकर मत्रत्र मागते मांगते फिरते है और जो गृहस्थी के व्यापार में सदा लगे रहते है एसे लोग पात्र कैसे हो सकते है अर्थात् कभी नहीं हो सकते । हिंसाइदोस कुत्तो अत्तरउद्देहि गमिय अहरत्तो । ऋय विक्किय वदतो इंदिय विसएसु लोहिल्लो ।। ५५३ ।। हिसादिदोषयुक्त आरौिद्रेः गमिताहोरात्रः । क्रयविक्रयवर्तमानः इन्द्रिय विषयेषु लुब्धः ।। ५५३ ।। उत्तम पल णितिय गुरुठाने अप्ययं पकुव्यतो । होउं पावेण गुरू वुड्डइ पुण कुगइ उवहिम्मि ।। ५५४ । उत्तमपात्रं निन्दित्वा गुरुस्थाने आत्मानप्रकुर्वन् । भूत्वा पापेन गुरुः गुडति पुनः कुगत्युदधौ ।। ५५४ ॥ अर्थ- जो पुरुष हिंपा झूठ चोरों आदि पापों में लगा रहता है, रातदिन आतुंध्यान अथवा रौद्र ध्यान में लगा रहता है, संसार भर के सामानों को खरीदने और बेचने में लगा रहता है, और इद्रियों के विषयों मे अत्यन्त लोलुपता धारण करता है, इसके सिवाय जो उत्तम पात्रों की सदा निन्दा करता रहता है और गुरुओं के स्थान में अपनी आत्मा को नियुक्त करता है अर्थात् अपने आप स्वयं गुरु बन बैठता है। इम प्रकार जो अपने ही पापों में अपने को गुरु मानता है वह मनुष्य नरक निगोद रूपी कुगतियों के समुद्र में अवश्य डूब जाता। जो बोलइ अप्पाणं संसार महष्णवम्मि । सो अणं कह तारइ तस्सणुमग्गे जणे लागं ।। ५५५ ॥ . य: निभज्जयति आत्मानं संसारमहार्णवे गुरुके । स अन्यं कथ तारयति यस्यानमार्गे जनलग्नम् ॥ ५५५ ।। . अर्थ- इस प्रकार अपने को गुरु मानने वाला पुरुष इस संसार रूपी महा भयानक समुद्र में अपने आत्मा को डुबा देता है । वह मिथ्या गुरु उस मिथ्या गुरु के पीछे पीछे लग हुए मनुष्य को भला पार कैसे कर सकता है अर्थात् ऐमें गुरु के पीछे जो मनुष्य लगता है वह भी उसके
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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