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________________ भाव-सर अर्थ - जिस प्रकार लोहे की बनी नाव में अवश्य डूब जाता है उसी प्रकार कुपात्रों का सन्मान करने वाला पुरुष भी इस संसार रूपी समुद्र मे अवश्य डूबता है। गलहंति फलं गरुयं कुच्छिय पहुबिस सेविया पुरिसा । जह तह कुच्छ्यि पत्ते विष्णा दाणा मुणेयन्वा ।। ५५० ।। न लभन्ते फलं गुरुकं कुत्सितप्रभुत्व सेवकाः पुरुषाः । यथा तथा कुत्सितराने दत्तानि वानानि मन्तव्यानि ।। ५५० ।। अर्थ- जिस प्रकार किमी कुत्सित स्वामी के आश्रित रहने वाले सेवक पुरुष को उसकी मेवा का अच्छा श्रेष्ठ फल नहीं मिलता इसी प्रकार कुत्सित पात्रों को दिया हुआ दान समझना चाहिये । भावार्थकुत्सित पात्रों को दिये हुए दान का फल भी श्रेष्ठ फल कभी नहीं मिल सकता। णत्थि वय सील संजम झाणं तब नियम बंभचेरंच । एमेव भगद पत्तं अप्पाणं लोय मामिम ।। ५५१ ।। नास्ति बलशीलसंयम ध्यानं तपोनियमब्रह्मचर्य च । एवमेव भणति पात्र आत्मानं लोकमध्ये ॥ ५५१ ।। अर्थ- जो न तो व्रतों को पालन करते है न शीलों को पालन करते है, जिनके न संयम है न ध्यान है जो न किसी प्रकार का तपश्नकरने न किसी नियम का पालन करते है और न ब्रह्मचर्य का पालन करते है ऐसे लोग भी इस लोक में अपने को पात्र कहते है। आगे और भी कहते है। मय कोह लोह गहिओ उड्डिय हत्थाय जायणा सोलो । गिह वाबारासत्तो जो सो पत्तो कहं बइ ।। ५५२ ।। मदक्रोध लोभमभित उत्थितहस्तश्च याचनाशीलः । गृहव्यापारासक्ल: यः स पात्रं कथं भवति ।। ५५२ ।। अर्थ- भला विचार करने की बात है कि जो झूठमूठ ही अपने
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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