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________________ भाव-संग्रह णाऊण तस्स दोस सम्माणह मा कया विसधिणभिम । परिहरह सया दूरं वुह्यिाण वि सविस सप्पं व ।। ५४६ ॥ ज्ञात्वा तस्य दोष सम्मानयेन्मा कदाविपि स्वप्ने । परिहरेत्सदा दूरं ज्ञात्वा सविषसर्पवत् ॥ ५४६ ।। अर्थ- कुपात्रों को दान देने में अनेक प्रकार के दोष होते है उन सबको समझकर स्वप्न में ी उनका सन्मान नहीं करना चाहिये, तथा कभी किसी अवस्था में भी उनका सम्मान नहीं करना चाहिये । विषधर सप के समान पात्रों का त्याग ती दूर स ही कर देना चाहिय । पत्थर मया वि दोणी पत्थर मप्पाणयं च वोलेई । जह तह कुच्छिय पत्तं संसारे चेव बोलेई ॥ ५४७ ।। प्रासर मायन मोग प्रालामामानं च निमज्जयति । यथा तथा कुत्सितपात्र संसारे एव निमम्जयति ।। ५४७ ।। अर्थ- जिस प्रकार पत्थर की बनी हुई और पत्थरों से भरी हुई नाव उन पत्थरों को भी डुबो देती है और स्वयं भी डूब जाती हे उसी प्रकार कुपात्र भी मंसार समुद्र में डूब जाता है और दूसरों को भी डुबा देता है 1 णाया जह सच्छिद्दा परमप्पाणं च उहि सलिलम्मि । वो लेन तह कुपतं संसारमहोवही भीमे ।। ५४८ ॥ नौर्यथा सछिद्रा परमात्मानं चोदधिसलिले । निमज्जयति तथा कुपानं ससारमहोवधौ भीमे ।। ५४८ ।। अर्थ- जिस प्रकार छिद्र सहित नाव समुद्र के जल मे अपने आप डूब जाती है उसी प्रकार कुपात्र भी इस संसार रूपी भयानक महा समुद्र मे अपने आप डूब जाता है | . लोहमए कुतरंडे लग्गो पुरिसो हु तारिणो वाहे । बुड्ढइ जह तह बुड्ढइ कुपत्त सम्माणओ पुरिसो । ५४९ ।। लोहमये कुतरण्डे लग्नः पुरुषो हि तारिणीवाहे । मज्जति यथा सथा मज्जति कुपात्रसम्मानक: पुरुषः ॥ ५४९ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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