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________________ (१७) जो लोग नय के पक्षपात को छोडकर मदा अपने आप के स्वरुप मे तल्लीन रहते है एवं सम प्रकार के विकल्प जालसे रहित शांतचित्त वाले तें है । होते है वे लोग ही साक्षात् अमृत का समयसार पान एकस्य बीन तथा परम्य चितिपोवितियक्ष पालो । चिच्चिदेव ।।६९ ॥ यत्रवेदी च्युन पक्षपातस्तस्थास्ति नित्यं खल जोव व्यवहार नय की अपेक्षा से बद्ध होता है और निश्चय नय की अपेक्षा से बद्ध होता है। और निश्चरनयको अपेक्षा मे वह बद्ध नहीं होता है। अतः इन दोनो नयों के विचार में अपना-अपना पक्षपान है इसलिये पक्षपात रहित तत्ववेदी गुम्पके ज्ञान में तो वेतन नहीं है । 4 समयाख्यानकाले गं बुद्धिर्भयद्वयात्मिका । वर्तले बुद्धतत्त्वस्य म स्वस्थस्य निवर्तते ॥ मोपादेयतत्वे तु विनिश्चिच नयद्भयात् त्यक्त्वा देयम्पादेवस्थानं साधुसम्मतं ॥ ( स. सा. जयसेन यं त. वृ.) आगम के व्याख्यान के समय मनुष्य की बृद्धि निश्चय और व्यवहार इन दोनों मयों को लेकर चलती है। किन्तु लत्व को जान लेने के बाद स्वस्थ हो जानेपर उहापोहात्मक बुद्धि दूर हो जाती हैं। निश्वर और व्यवहार इन दोनों नयों के द्वारा य और उदय सवका निर्णय कर लेने पर हंस का या करके उप देय तत्व से लगे रहना साधु-संतों को अभीष्ट है आह्वान जिस करणी से हम हुए अनंत महान । उस करणी तुम करो हम तुम दोन समान । उपसंहारः समयसार वस्तुतः शास्त्र नहीं है, जो कि कुछ स्वर अजनात्मक वाय सेल है । वह तो एक परमोत्कृष्ट, अलकिक, अभीतिक अतिप्रिय, मातीत वचनातील अलाकार, मनासीत परमतत्व है वह परमतत्र वचन के अगोवर, शन से अवर्णनीय शास्त्र की सीमा से परे है, पीई की उसको हाय मे लेकर देख नहीं सकता है। सुक्ष्म अणुवीण दूरदशक यंत्र से देख
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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