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________________ नहीं सकता है, भौतिक विन न शाला का अविषय है। वच, के अगौचर होते हुए भी जिसका कथन मानत अभ्यात्मिक दियाद न शान सीमा से परे हाने हुए भी जिसका वर्णन समस्त आध्यात्मिक शास्त्र करता है, जिसका प्रदर्शन करवाना असंभव होते हुवे भी समस्त आध्यामिक प्रशिक्षक जिसका ही प्रदर्शन कराते हैं, वह हा गरमा-कृष्ट स्य तत्व समयसार है। जिसका दर्शन चक्षु आदि इन्द्रियों से, मूक्ष्म शतशाली अणुदर्शक दूर दर्श यत्र से, तर्क, व्याकरण, छन्द, साहित्य, क्रान्य, नाटक, न्याय, दशन, आगम. आशस्मिक बाम्न से भी नहीं हो सकता है। उसका दर्शन निःशंक निरालम्बा अकिंचन महामुनि महज स्वभाषी निविकल्प परम्समाधि के माध्यम से करते है । जानक, जितकं. कुन, सूतक्र के अगम्य वाद विवाद कुवाद सुवाद के परे होते हुए भी जो सहज सरल महामुनि के वेदाम्य हैं । जी परम मनियों क" परम णन का विषय होते हुए भी स्वयं ध्यानातीत, जो निश्चय-त्र्यवहार, देव्य-पयांयात्मक नय वा विषय होते हुये भी स्वयं सर्व नयातीत है, जो निक्षेपों के विषय हाते हुये मी स्वयं निक्षपातित है, जो सर्व ज्ञेय पदार्थ को जानते हार मी स्वय अन्म झय स्वरूप नहीं, जा सर्व द्रव्य गयोग सहिन हने हुने भा वय असंग स्वरुप वह है, अतिवित्रिय अनि गृढ गद्ध स्वात्मतत्व । जो आमल्य होकर भी ग्रिलोक के मूल्य से भी खरीदा नहीं जा सकता, जो गुरुता से (भारोपना) रहित होकर भो लोक के गुरु है. जा सूक्ष्म हाक भः लोकालोक से भी अनन्त गण (ज्ञानापेक्षा। बड़ा है वह है महान तत्व स्वशुद्धात्म तःब । जो अगुमलघु (न भारी, न हल्का) होते हये 'भौं जिसको चलायमान करने में पिलोक की शक्ति असमथं, जो दूसरों को प्रतिरोध (अधानाध) नहीं करते हुये भी कोई उनको बाधा नही पहुंचा समता. जी मन बचन कार्य बलले हित होकर भी अनत्तवार्य है, वह स्वयम् सर्वशक्तिवान समयभार नत्व स्वशुकाम तत्व है । जो समस्त चर चर का दर्शक होते हुये भी स्वय मवदृष्टि के अगोचर, सर्व का दर्शन होते हो भी जा स्वयं अन क्षिायिक सम्यग्दृष्टि है वह शुद्ध बद्ध सदान आरमतत्त्र ममयमार स्वशुद्ध तत्व है। (जो मिथ्या देवादियों का दर्शन करता है वह मिथ्वादाट परंतु शुद्वारला, अनंनतर्गन से सबका दर्शन करते हुये भी क्षायिक अनन्त सम्यक्षवाला है। जो सुख में { काम-भोग इन्द्रिय जानन मूत्र से 1 हि होर भा जा त्रिकालवों नर-नरेन्द्र देव-देव-द्र, अमूर असर द्रादित्रों के मुख से भी अनत गणित प्रतिन्द्रिय, अव्य वाध. निग क्षा, आत्माय, निगकुल, ज्ञानानद रुप अमित सुख को अनभव करता है वह अति शान्ति, सुखी, आत्मोपमांगी, महेन्द्र, विष्णु, मकर, शुद्ध वृद्ध-प्रबुद्धा अपातिक चिज्योतिस्वर.प, आनंद धन स्वरुप
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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