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५) तप (यथायोग्य इच्छा निरोध हा अन्तरंग-बहिरंग त।। ६) दान ।। ये गृहस्थों के दैनन्दिन अवश्य करने योग्य कर्तव्य है ।
देवपूजा दया दान, तीर्थयात्रा जपस्तपः । शास्त्र परोपकारत्वं मत्यु जन्म फलाष्टकम् ।।
१) देवपूजा २) दया ३) दान' ४) तीर्थ यात्रा ५) जप ६) ता । ७) शास्त्र अध्ययन ८) पसोपार ये "धा जोशम हैं। " दाणं पूजा सोलमुबवासो चेवि चडब्विहो सावध धम्मो "
(ज. घ. पु. १ पे २१ ) । १) दान २) पूजा ३) शील ४) उपवास यं चारों श्रावकों के धर्म है।
दाणं पूया मुक्खं सावय धम्मे सायया तेण विणा । शाणाजायणं मुक्खं जदि धम्मे तं विणा तहा सोयि ।। ११ ॥ ।
( रयणसार ) श्रावकों के अनेक कर्तव्यों में से षट् आवश्यक मुख्य है । उनमें भी दान-पूजा अत्यन्त मुख्य है । यदि श्रावक दान-पूजा नहीं करता है तो वह श्रावक ही नहीं है । उसी प्रकार मुनि धर्म में ध्यान अध्ययन मुख्य है, यदि मुनि ध्यान, अध्ययन नहीं करता है तो मुनि नहीं है ।
दाण ण धम्म ण चाग ण भोग ण बहिरप्प जो पयंगो सो लोह कसायनिगमहे परिदो मरिनो ण संदेसो ।। १२ ॥
रयणसार ) जो दान, धर्म, त्याग नहीं करता है तथा अनर्गल पूर्वका आयनि पूर्वक भोग करता है, परंतु संयम पूर्वक नहीं रहता है, वह वाहरात्म; मिथ्यादृष्टी, अज्ञानी है, वह लोभकषाय रूप अग्नि में पतग के समान पड़ता है, भरता है, संसार में दु,खी होता है ।
जिण पूया मुणिदाणं करेदि जो वेदि सत्तिरवण । समादिछी सायय-धम्मो सो होदि मोक्जमग रदो।। १३ ।।
( रयणसार )