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________________ २७२ एतस्मिन् गुणस्याने अस्ति आवश्यकानां परिहारः । ध्यान मनसि स्थिरत्वं निरन्तरं अस्ति तथ् यस्मात् ।। ६० ।। माव-सग्रह - अर्थ - इस सातवे गुणस्थान में छहो आवश्यकताओं की आवश्यकता नहीं होती और इसलिये ध्यान मे लगा हुआ मन निरन्तर अत्यन्त स्थिर हो जाता है । सत्तमयं गुणठाणं कहियं अपमत्त णाम संजुत्तं । एतो अप्पुचणामं बुच्छामि जहाणुपुत्रीए || सतर्क गुणस्थानं कथितं अप्रमत्त नाम संयुक्तम् । इतोऽपूर्वनाम वक्ष्यति॥३॥ अर्थ - इस प्रकार अप्रमत्त संयत नाम के सातवे गुण स्थान का स्वरूप कहा | अब इसके आगे अनुक्रम से होने वाले अपूर्व करण नाम के आठवें गुण स्थान का स्वरूप कहते है । इस प्रकार अप्रमत्त संयत नाम के सातवे गुणस्थान का स्वरूप आगे अपूर्व करण नाम के आठवे गुण स्थान का स्वरूप कहते है । बं भेय पऊलं खवयं उवसामियं च णायव्वं । वए खवओ मो उवसमए होइ उवसमओ ।। तद्विभेव प्रोक्तं क्षपक मुपशमकं च ज्ञातव्यम् । क्षपके क्षपको भावः उपशमके भवति उपशमकः ।। ६४२ अर्थ- इस आवे गुण स्थान के दो भेद है एक औपशमिक और दूसरा क्षायिक क्ष कि अपूर्व करण में क्षायिक भाव होते है पश मिक अपूर्व करण में औपशमिक भाव होते है । भावार्थ - सातवे गुण स्थान में ध्यान करने वाले मुनि सातवे गुण स्थान के अन्त में दो प्रकार. के मार्गों का अवलम्बन करते है । एक क्षपक श्रेणी औण दूसरा उपशम श्रेणी । जो क्षपक श्रेणी में चढते है वे अपने कर्मों का क्षय करते जाते है और बारहवे गुणस्थान के अन्त होने पर केवल ज्ञान प्राप्त करते है । उपशम श्रेणी चढने वाले मुनि अपने ध्यान में कर्मों का क्षय नहीं करते
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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