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एतस्मिन् गुणस्याने अस्ति आवश्यकानां परिहारः । ध्यान मनसि स्थिरत्वं निरन्तरं अस्ति तथ् यस्मात् ।। ६० ।।
माव-सग्रह
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अर्थ - इस सातवे गुणस्थान में छहो आवश्यकताओं की आवश्यकता नहीं होती और इसलिये ध्यान मे लगा हुआ मन निरन्तर अत्यन्त स्थिर हो जाता है ।
सत्तमयं गुणठाणं कहियं अपमत्त णाम संजुत्तं । एतो अप्पुचणामं बुच्छामि जहाणुपुत्रीए ||
सतर्क गुणस्थानं कथितं अप्रमत्त नाम संयुक्तम् । इतोऽपूर्वनाम वक्ष्यति॥३॥
अर्थ - इस प्रकार अप्रमत्त संयत नाम के सातवे गुण स्थान का स्वरूप कहा | अब इसके आगे अनुक्रम से होने वाले अपूर्व करण नाम के आठवें गुण स्थान का स्वरूप कहते है ।
इस प्रकार अप्रमत्त संयत नाम के सातवे गुणस्थान का स्वरूप
आगे अपूर्व करण नाम के आठवे गुण स्थान का स्वरूप कहते है ।
बं भेय पऊलं खवयं उवसामियं च णायव्वं । वए खवओ मो उवसमए होइ उवसमओ ।।
तद्विभेव प्रोक्तं क्षपक मुपशमकं च ज्ञातव्यम् । क्षपके क्षपको भावः उपशमके भवति उपशमकः ।। ६४२
अर्थ- इस आवे गुण स्थान के दो भेद है एक औपशमिक और दूसरा क्षायिक क्ष कि अपूर्व करण में क्षायिक भाव होते है पश मिक अपूर्व करण में औपशमिक भाव होते है । भावार्थ - सातवे गुण स्थान में ध्यान करने वाले मुनि सातवे गुण स्थान के अन्त में दो प्रकार. के मार्गों का अवलम्बन करते है । एक क्षपक श्रेणी औण दूसरा उपशम श्रेणी । जो क्षपक श्रेणी में चढते है वे अपने कर्मों का क्षय करते जाते है और बारहवे गुणस्थान के अन्त होने पर केवल ज्ञान प्राप्त करते है । उपशम श्रेणी चढने वाले मुनि अपने ध्यान में कर्मों का क्षय नहीं करते