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भाव-संग्रह
आगे ध्यान का तीसरा फल बतलाते है । तणुषंचस्सय णामो सिद्धसरुवस्स चेव उप्पत्ती। तिहुयण पहुत्त लाहो लाहो य अणेत विरियस्स ।। ६३७ ।। अठगुणाणं लद्धी लोयं सिहरग्गखे तसंवासो।। तय फलं कहिय मिणं जिणधरचंवेहि झाणस्स ।। ६३८ ।। तनुपंचानां नाश: सिद्धस्वरुपस्य चैवोत्पत्तिः । त्रिभुवन प्रभुत्वलामो लामश्चानन्त वीर्यस्य ।। ६३७ ॥ अष्टगुणानां लब्धिः लोक शिखरानक्षेत्र संवासः । तृतीय फलं कथितमिदं जिनवरचन्द्र ध्यानस्य ।। ६३८ ।।
अर्थ- औदारिक आदि पांचों शरीरों का नाश हो जाना, सिद्ध स्वरूप को प्राप्ति हो जाना तीनों लोकों का प्रभत्व प्राप्त हो जाना अनन्त वीर्य की प्राप्ति हो जाना सम्यकत्व, ज्ञान, वीर्य, मूक्ष्मत्व अगुरुलघुत्व अव्यावाध दर्शन इन आठ गगों को प्राप्ति हो जाना और लोक शिखर के अग्रभाग पर झाकर स्थिर हो जाना यह सब ध्यान का तीसरा फल भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।
आम इस गुण स्थान के स्वरूप का उपसंहार करते है। एवं धम्मज्माणं कहियं अपमस्त गुण समासेण । सालंय मणालंव तं मुक्ख इत्थं गायब्वे ।। एवं धर्माध्यानं कथितं अप्रमत्त गुणे समासेन । सालम्बमनालम्ब तन्मुल्य अत्र ज्ञातव्यम् ।। ६३९ ॥
अर्थ- इस प्रकार इस सातवे अप्रमत्त गुण स्थान में होने वाले धर्म ध्यान वा स्वरूप अत्यंत संक्षेप से कहां । इस गुण स्थान में अवलम्बन सहित धर्म घ्यान भी होता है तथा इस गुण स्थान में दोनों ही ध्यानों की मुख्यता रहती है । ऐसा समझना चाहि ।
एबम्हि गुणट्ठाणो अस्थि आवासयाण परिहारो। साण मणम्मि घिरत्तं णिरंतर अस्थितं जम्हा ।।