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________________ भाव-संग्रह अर्थ-. जिन तीर्थंकरों ने मोा की प्राप्ति के लिये समस्त राज्य का त्याग कर मुनि अवस्था धारण की वे ही तीर्थकर मुनि होकर भी फिर हाथ में पाश लेकर पर सरोजा गाने के लिये नयों जाते हैं? क्या रत्नवृष्टि भी घर घर बरगी थी। भावार्थ- जब गृहस्थ अवस्था से ही मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है तो फिर राज्य और समस्त परिग्रह के त्याग करने की क्या आवश्यकता थी और यदि त्याग ही किया तो फिर वस्त्र दण्ड आदि क्यों धारण किये और हाथमें पात्र लेकर घर घर मिक्षा क्यों मांगी । इसलिये त्याग कर फिर ग्रहण करना सर्वथा मिथ्यावाद है। आगे इस सबका सारांग दिखलाते हैं । ण हु एवं जं उत्तं संसमिच्छत्तरसियचित्तेण । णिगंय मोक्खमग्गो किंचण यहिरंतण चरण || ९१ ।। न हि एवं यदुक्तं संशयमिथ्यात्वरसिकरित्तेन । निग्रंथमोक्षमार्ग: किचन वाह्यान्तरत्यागेन ।। ९१ ॥ अर्थ- जिसका हृदय संशय मिथ्यात्व के रस से रसिक हो रहा है। उसका यह सब ऊपर कहा हुआ मस ठीक नहीं है । क्योंत्रि मोक्षका मार्ग निर्गन्थ अवस्था ही है। जिसमें वस्त्र दंड आदि समस्त बाह्य परिब्रहों का भी त्याग हो जाता है। ऐसी दीवगग निर्गन्य अवस्था ही मोक्ष का मार्ग है | सग्रन्थ अवस्था मोक्ष का पार्ग कभी नहीं है। आगे स्त्री मुक्ति का निषेध करते हैं । जइ तप्पइ उगतवं मासे मासे य पारणं कुणह । तइ वि ण सिज्मइ इयो कुष्टिलिंगस्स दोसेण ॥ ९२ ।। यदि तप्यते उग्रतपः मासे मासे च पारणं करोति । तथापि न सिद्धनि स्त्री कुत्सिलिंगस्य दोषेण ।। ९२ ॥ अर्थ- स्त्री लिंग कुत्सित लिंग है अर्थात् स्त्री का शरीर वा स्त्री की पर्याय निन्द्य है। इसलिये चाहे कोई स्त्री उग्रसे उम्र तपश्चरण करती रहे और चाहे प्रत्येक महीनेका उपवास कर प्रत्येक महीने के
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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