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भाव-संग्रह
अन्त में पारणा करती रहे तथापि स्त्री को मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती।
आगे इसका कारण बतलाते हैं - मागापमायपउर पडिमासं तेसु होइ पक्खलणं । णिच्च जो णस्साओ पुण दाङलुस्थि चित्तस्स ।। ९३ ॥ मायाप्रमादप्रचुराः प्रतिभासं तासु भवति प्रस्खलनम् । नित्यं योनिस्तावः पुनःवाढर्य नास्ति चित्तस्य ॥ ९३ ॥
अर्थ- स्त्री को मोक्षकी प्राप्ति क्यों नहीं होती इसका कारण यह है वि स्त्रियों में मायाचार की मात्रा अधिक होती है तथा प्रमाद भी अधिक होता है । इसके सिवाय प्रत्यत्रा महोने में उनके रजा बालन होता रहता है, योनिमे रजःस्राव होता रहता है और इसलिये उनका चित्त कभी भी स्थिर नहीं रह सकता ।
भावार्थ- चित्तकै स्थिर न रहने से उनमे कभी ध्यान नहीं हो सकता । बिना ध्यान के कर्मों का नाश नहीं हो सकता और विना कर्मों के नाश किये मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार स्त्रियों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती ।।
आगे स्त्रियों के शरीर के दोष बतलाते हैं। सुहमापज्जत्ताणं मणुआणं जोणिणा हि फक्खेसु । उपत्ती होइ सआ अण्णो सु य तमुपएसेसु ॥ ९४ ॥ सूक्ष्मापर्याप्ताना मनुष्याणां योनिनाभिकक्षेषु ।
उत्पत्तिर्भवति सवा अन्येषु च सनुप्रदेशोषु ॥ ९४ ॥
अर्थ- स्त्रियों की योनि में, नाभि में, काख में तथा और भी कितने ही शरीर के प्रदेशों में सदा काल मूक्ष्म अपर्याप्तक मनुष्यों की उत्पत्ति होती रहती है।
भावार्थ- स्त्रियों की योनि, नाभि, कांख में सम्मर्छन मनुष्य उत्पन्न होते रहते है 1 वे जीव भनुष्य के आकारके पंचेन्द्रिय होते है अत्यन्तसूक्ष्म